SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ( बितियं) दूसरा आश्रवद्वार (अलियवयणं) मृषावाद - असत्य भाषण है । यह ( लहुसग - लहु वलभणियं) जिनकी आत्मा गुणगौरव से हीन है, तथा जो उतावले और चंचल हैं, उन्हीं के द्वारा बोला जाता है, ( भयंकरं ) स्व-पर में भय पैदा करने वाला है, (दुहकरं) दुःख का कर्ता है, (अयसकरं ) अपकीति ( बदनामी), करने वाला है, (वेरकारगं) वैर पैदा करने वाला है, ( अरतिरतिरागदोसमणसंकिलेसवियरणं) अरति, रति, राग, द्व ेष और मानसिक क्लेश को देने वाला, (अलियं ) झूठ, निष्फल या शुभ फल से रहित, ( नियडिसातिजोयबहुलं ) धूर्तता और अविश्वसनीय वचनों से प्रचुर, ( नीयजणसेवियं) जाति आदि से नीच-हीन लोगों द्वारा सेवित, (निस्संसं) नृशंश, (क्रूर) अथवा प्रशंसारहित, (अपच्चयकारकं ) अविश्वासजनक, (परमसाहुगरहणिज्जं ) योग, ध्यान आदि से उत्कृष्ट साधुओं द्वारा निन्दनीय, ( परपीलाकार कं) दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला, (परम किहलेस्ससहियं) परम कृष्णलेश्या से युक्त, ( दुग्गइविणिवायविवड्ढणं) दुर्गति में पतन की वृद्धि करने वाला ( भवपुण भवकरं) संसार में पुनः पुन: जन्म - पुनर्जन्म कराने वाला, (चिरपरिचियं) अनादिकाल से जीव का अभ्यस्त या परिचित, (अणुगतं ) निरन्तर प्राप्त और ( दुरंतं) कठिनता से अन्त होने योग्य अथवा अत्यन्त दारुण फल वाला है, ऐसा (बितियं) दूसरा ( अधम्मदार) अधर्म-आश्रवद्वार, (कित्तियं) कहा गया है। मूलार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैंहे जम्बू ! मृषावाद दूसरा अधर्मद्वार है । यह मृषावाद गुणगौरव से रहित होन आत्माओं एवं उतावले और अतिचंचल लोगों द्वारा बोला जाता है । अपने और दूसरों में भय पैदा करने वाला है, दुःखजनक है, संसार में अपकीर्ति . ( बदनामी) का जनक है, वैर पैदा कराने वाला है, रति-अरति, राग और द्व ेष रूपी मानसिक संक्लेशों को पैदा करने वाला है, शुभ फल की दृष्टि से निष्फल या झूठ है, धूर्तता माया चारी और अविश्वसनीय वचन से भरपूर है, जाति, कुल आचरण आदि से हीन लोगों द्वारा ही सेवित होता है, प्रशंसारहित या क्रूर है, अविश्वास का जनक हैं, महापुरुष या साधुजनों द्वारा गर्हित - निन्दनीय है, पर ( जिसके लिए झूठ बोला जाता है, ) उसको पीड़ा देने वाला है, उत्कट कृष्ण लेश्या से युक्त है, दुर्गति में पतन की वृद्धि करने वाला है, संसार में बार-बार जन्म- पुनर्जन्म आदि कराने वाला है, अनादिकाल से जीवों का परिचित-अभ्यस्त है, मिथ्यात्व अविरति आदि के प्रवाह के साथ लगातार लगा रहने वाला है, दारुण फल वाला होने से बड़ी मुश्किल से अन्त किया जाने वाला है। इस प्रकार दूसरे अधर्म (आश्रव) द्वार - मृषावाद का निरूपण किया गया है ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy