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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद- आश्रव
प्रथम अध्ययन में प्राणवध ( प्राणातिपात) का विस्तार से सांगोपांग निरूपण किया गया । किन्तु वह प्राणवध ( हिंसा) मृषावाद के द्वारा होता है; क्योंकि मृषा - वाद भी क्रोध, लोभ, भय और हास्य से सम्पन्न होता है । क्रोधादि ही भावहिंसा के मुख्य कारण हैं । द्रव्यहिंसा भी क्रोध, लोभ या भय आदि के निमित्त से होती है । अतः प्रसंगवश अब मृषावाद का निरूपण करते हैं
मृषावाद का स्वरूप
मूलपाठ
इह खलु जम्बू ! बितियं च अलियवरणं लहुसग - लहुचवलभणियं भयंकरं दुहकरं अयसकरं वेरकारगं अरतिरतिरागदोसमण-संकिलेस - वियरणं अलियं नियडिसातिजोय बहुलं नीयजणनिसेवियं निस्संसं अपच्चय कारकं परमसाहुगरहणिज्जं परपीलाकारकं परमकिण्हलेस्ससहियं दुग्गइविणिवायविवडणं भवपुणभवकरं चिरपरिचियमणुगतं दुरंतं कित्तियं बितियं अधम्मदारं ||सू०५||
संस्कृतच्छाया
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इह खलु जम्बू ! द्वितीयं चालीकवचनं लघुस्वक- लघुचपलभणितं, भयङ्करं दुःखकरं अयशस्करं वैरकारकमरतिरतिराग द्व ेषमनः संक्लेशवितरणमलीकं निकृतिसाति (अविश्रम्भ) योग बहुलं नीचजननिषेवितं नृशंसं (निःशंसं) अप्रत्ययकारकं परमसाधुगर्हणीयं, परपीड़ाकारकं, परमकृष्णलेश्यासहितं दुर्गतिविनिपातविवर्द्धनं भवपुनर्भवकरं चिरपरिचितमनुगतं दुरंतं कीर्तितं द्वितीयमधर्म-द्वारम् ॥सू० ५॥
पदार्थान्वय - ( इह ) इस शास्त्र में, ( खलु ) वास्तव में, (जंबू) हे जम्बू !