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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
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हो जाती है । साधारण वनस्पतिकाय ( अनन्तकाय) में अनन्तकाल तक भ्रमण करता है । इसे ही स्पष्ट किया गया है -- 'पत्तं यसरीरजीविएसु कालमस खेज्जगं भमंति" अतका अनंतकालं ।'
एकेन्द्रियपर्याय में प्राप्त होने वाले दुःख - कई लोग, जो जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ हैं, यों कह दिया करते हैं कि “पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में हमें तो कोई चैतन्य या जीव दिखाई नहीं देता । जब इनमें चेतना ( आत्मा ) ही नहीं है, तब इनके लिए क्या सुख और क्या दुःख, सब एक समान है । अगर इन्हें सुख-दु:ख का अनुभव होता तो ये दुःख देने वाले का प्रतीकार – सामना करते और सुख देने वाले पर आशीर्वाद बरसाते !" इसका यों तो हम पूर्वसूत्र की व्याख्या में स्पष्ट समाधान कर आए हैं कि इनमें जीव कैसे हैं और इनमें सुख-दुःख का संवेदन तथा अनुकूल-प्रतिकूल प्रतिक्रिया कैसे होती है ? एकेन्द्रिय जीवों का अस्तित्व जब स्पष्ट है तो उनमें चैतन्य होते हुए भी सुख - दुःख का संवेदन न हो, यह कैसे संभव है ? किन्तु बहां चैतन्य अव्यक्त, मूच्छित या सुषुप्त होने के कारण आम आदमी को उनके संवेदन का व्यक्तरूप में पता नहीं लगता । मगर आजकल के वैज्ञानिकों ने विविध दूरवीक्षण यंत्रों, साधनों और औजारों द्वारा इसका पता लगा लिया है और उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि इनके अंदर भी सुख-दुःख का संवेदन और अनुकूल प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती है । अग्नि की प्रतिक्रिया ज्वालामुखी तथा भड़कती हुई लपटों के रूप में, पानी की प्रतिक्रिया बाढ़ के रूप में, हवा की प्रतिक्रिया तूफान और आंधी वगैरह के रूप में, पृथ्वी की प्रतिक्रिया भूकंप और पाषाणपात के रूप तथा वनस्पति की प्रतिक्रिया जहरीली गैस, धुंआ आदि के रूप में या संगीत या वाद्य सुनाने से फसल की उपज में वृद्धि आदि के रूप में देखी जा सकती है । इन एकेन्द्रिय जीवों के पास केवल शरीर है, भाषा, द्रव्यमन या अन्य इन्द्रियाँ आदि नहीं हैं, जिससे वे गहराई से चिन्तन कर सकें, संसार के अन्य जीवों के व्यवहार को देख-सुन सकें अथवा अपने भावों को स्पष्ट व्यक्त कर सकें । अगर कोई गहराई से सोचे और इनकी क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं का का गम्भीर अध्ययन करे तो निःसंदेह उसे एकेन्द्रिय जीवों के संवेदनों का पता लगे बिना न रहेगा । इसीलिए सर्वज्ञ तीर्थङ्करों के द्वारा प्राप्त प्ररूपणा के आधार पर ज्ञानी शास्त्रकार स्पष्ट कहते हैं- 'फासिंदियभावसंपउत्ता दुक्खसमुदयं इमं अणिट्ठ पावंति पुणो-पुण तहिं तहिं चैव कुद्दाल- कुलियालण " अग्गिदहणाइयाई ।" मूलार्थ में हम इन सबका अर्थ स्पष्ट कर आए हैं । इसलिए और अधिक लिखने की आवश्यकता न समझकर इतना ही कहना उचित समझते हैं कि इन एकेन्द्रिय जीवों को प्राप्त होने वाला दुःख नारकों और त्रस जीवों से किसी कदर कम नहीं होता । एकेन्द्रिय जीवों की कुल ५७ लाख कुलकोटियों (उत्पत्ति स्थानों) में अनन्तकाल तक