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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
जन्ममरण के प्रवाह में बहते रहना, क्या कम दुःखकारी है ? किसी भी व्यक्त चेतनाशील जीव को इतने लम्बे समय तक एक ही प्रकार के एकेन्द्रिय जीवयोनियों में रहने की सजा दी जाय तो उसके लिए वह कितनी भयंकर, कितनी दुःसह्य और कितनी दुःखकर होगी ? इसी पर से एकेन्द्रिय जीवों के वचनागोचर दु:खों का अनुमान लगाया जा सकता है ! नरक भूमियों में प्राप्त होने वाले दुःख नारकों द्वारा शब्दों से व्यक्त किये जा सकते हैं, लेकिन एकेन्द्रिय जीव तो शब्दों से भी अपने दुःखों को व्यक्त नहीं कर सकते । इन पूर्वोक्त दुःखों के सिवाय सबसे भयंकर दु:ख तो संसार में जन्ममरण का है, जिसे वे सदा-सर्वदा भोगते रहते हैं । इसीलिए संसार के समस्त प्राणियों में अधमाधम पर्याय एकेन्द्रिय की मानी गई है। जैसे किसी मनुष्य को चाबुक, लाठी आदि से लगातार मारने पर वह मार खाते-खाते जब सह नहीं सकता तो बेहोश होकर गिर जाता है। यद्यपि बेहोश अवस्था भी अत्यन्त दुःख से होती है, परन्तु बेहोशी की हालत में भी दुःख तो मौजूद रहता है, लेकिन व्यक्तरूप से उसे महसूस नहीं होता। यही हाल एकेन्द्रिय जीवों का और खासकर अनन्तकायिक निगोद के जीवों का है, जो बार-बार जन्म-मरण करने से उत्पन्न हुए दारुण दुःखों का अनुभव करते-करते अचेत-से रहते हैं। इसलिए इनका भी दु:ख नारकों के समान तीव्र है।
दूसरी बात यह है कि वे बड़े हिंसक जीव नरक से निकल कर तिर्यञ्च योनि में और उसमें भी त्रसपर्याय में उन शेष कर्मों के फलभोग के लिए दो हजार सागरोपम से कुछ अधिक काल तक रह सकते हैं। इस अवधि से अधिक त्रसपर्याय में कोई भी जीव नहीं रह सकता । फिर तो उसे अपने शेष कर्मों को भोगने के लिए एकेन्द्रिय (स्थावर) पर्याय की ही शरण लेनी पड़ती है। उसमें भी पृथ्वीकाय आदि चारों स्थावरों में असंख्यात काल तक रह कर फिर साधारण वनस्पतिकाय में ही वह अपना डेरा जमा लेता है; जहाँ से अनन्त काल तक उसका निकलना दुष्कर होता है। इस पर से यह सहज ही समझा जा सकता है कि अनन्तकाल तक जन्म-मरण का दुःख कितना भयंकर दर्दनाक होता है।
मनुष्यपर्याय पाकर भी सुख नहीं-हिंसा आदि भयङ्कर दुष्कर्मों का सेवन करके आत्मा अपनी अनन्तज्ञानादि शक्तियों को नष्ट कर लेता है और उन दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए नरक में जाता है, वहाँ पर उनका फल पूरा न भोग सकने के कारण तिर्यञ्चगति में विविध योनियों में भटकता है; किन्तु कदाचित् किसी पुण्यकर्म के उदय से उन बाकी रहे कर्मों का फल भोगने के लिए बड़ी कठिनाई से मनुष्यगति में आ जाय और मनुष्यपर्याय को पा ले तो यहाँ भी दुर्भाग्यदशा प्रायः उसका पल्ला नहीं छोड़ती। इसी बात को स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं