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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र वनस्पतिकायिक जीवों के इनके अतिरिक्त दो भेद और हैं- प्रत्येक वनस्पतिकाय और साधारण वनस्पतिकाय । जिस वृक्ष, फूल, फल आदि वनस्पति के एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो, उसे प्रत्येक वनस्पतिकाय और जिस वनस्पति के एक ही शरीर में अनन्त जीव रहते हैं, अनन्त जीव मालिक हैं और वे एक ही साथ जन्म लेते हैं, श्वास लेते-छोड़ते हैं, आहार लेते हैं व मरते हैं; उन्हें साधारण वनस्पतिकाय कहते हैं । 'प्रत्येक शरीर नाम', नामकर्म की ९३ प्रकृतियों में से एक प्रकृति है, उसके उदय से उत्पन्न शरीर वाले जीव को, प्रत्येक शरीरी कहते हैं । इसीलिए शास्त्र के मूलपाठ में कहा है- 'पत्तेय सरीर नाम' । प्रत्येक शरीरी वनस्पति के जीवों के भिन्न-भिन्न शरीर होते हैं । इसके भी दो भेद हैं- सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक । जहाँ एक वनस्पति वृक्ष, लता आदि के आश्रित अलग-अलग वनस्पतियाँ ( पत्ते, फूल, फल आदि के रूप में) रहती हों और उनका अपना अस्तित्व व व्यक्तित्व अलग-अलग हो, वहाँ सप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीरी वनस्पति समझना चाहिये । जैसे सम्पूर्ण वृक्ष का स्वामी एक जीव होने पर भी उसके मूल (जड़), कन्द ( जड़ के ऊपर लगने वाला आलू सूरण आदि), त्वचा (छाल), कोंपल, पत्ता, शाखा, फूल, फल और बीज - इन सब में अलगअलग जीव हैं, इनके स्वामी भी अलग-अलग हैं, शरीर भी भिन्न-भिन्न हैं; किन्तु जब इनको तोड़ा जाता है तो इनका ( एक समान चिकना ) एक-सा भंग हो, तब वह वनस्पति प्रतिष्ठित प्रत्येक कहलाती है, यदि उसका भंग खुर्दरा, टेढ़ा मेढा टुकड़े के रूप में हो, तब उसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहना चाहिये । कहा भी है १२४ कंदे-मूले- छल्ली - पवाल-साल-दल- कुसुमे । समभंगे सति अनंता, असमे सदि होंति पत्तया ॥ अर्थात्–'कंद, मूल, त्वचा, कोंपल, शाखा, पत्ता और फूल, इनका समान भंग हो तो ये अनन्तकाय (सप्रतिष्ठित प्रत्येक ) होते हैं, और जब इनका समान भंग हो, तब अप्रतिष्ठित प्रत्येक होते हैं ।' साधारणशरीरी वनस्पति का लक्षण इस प्रकार है'साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥' अर्थात् - एक शरीर में एक साथ उत्पन्न हुए अनन्त साधारण जीवों का जहां एक साथ एक सरीखा आहार होता हो, उनके शरीर और इन्द्रियों की रचना, पर्याप्ति भी एक सरीखी और एक साथ होती हो, श्वासोच्छ्वास भी सदृश और एक साथ होता हो, यही साधारण जीवों का सामान्य लक्षण बताया गया है । प्रत्येक शरीरी जीवन में वह जीव असंख्यात काल तक भ्रमण करता है । इनमें पृथ्वीकाय, जलकाय अग्निकाय, वायुकाय और प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों की गणना
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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