SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव १२३ करता है, तदनन्तर स्पर्शन और रसन इन दो इन्द्रियों वाले जीवों की ७ लाख कुलकोटियों में जन्म मरण के चक्कर काटता है, उसके बाद सिर्फ स्पर्शनेन्द्रिय को पाए हुए पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीवों की पूर्वोक्त ५७ लाख कुल कोटियों में बारबार जन्म-मरण पाता रहता है । विकलेन्द्रिय और एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनियों के दुःख -- पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचयोनियों में नरकगति के सदृश दुःखानुभव करने के बाद शेष दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए वहाँ से निकल कर चतुरिन्द्रिय जीव योनियों में जन्म लेते हैं । चार इन्द्रियों वाले भौंरे, टिड्डी, मक्खी, मच्छर आदि की विविध योनियों में जीव बारबार उन्हीं - उन्हीं योनियों में जन्म-मरण का दुःख भोगते हुए संख्यात काल तक भ्रमण करते हैं । उनके दुःख भी नैरयिकों के समान अत्यन्त तीव्र हैं । उसके पश्चात् हजारों वर्षों तक चार इन्द्रियों वाले जीवों की पर्यायों को बिताकर शेष पाप कर्मों को भोगने के लिए वहाँ से निकल कर तीन इन्द्रियों वाले जीवों की पर्याय धारण करते हैं, वहाँ भी हजारों (संख्यात) वर्ष तक जन्म-मरण के चक्कर लगाता है । तत्पश्चात् नरक के सदृश तीव्र दु:खों को सह कर वह जीव शेष कर्मों को भोगने के लिए द्वीन्द्रिय पर्याय को धारण करता है, 'जहाँ हजारों वर्षों तक नरकसदृश असीम पीड़ा का अनुभव करता है । इतने दीर्घकाल तक उस हिंसा के कटुफल को भोगने पर भी बाकी बचे हुए दुष्कर्मों को भोगने के लिए वह एकेन्द्रिय जाति में जन्म लेता है, जहाँ उसकी चेतना सुषुप्त या मूच्छित होती है । उस अव्यक्त चेतनावस्था में उसे कर्म के केवल सुख-दुःख रूप फल का यत्किञ्चित् भान होता है । उसका वह ज्ञान भी अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ही होता है । एकेन्द्रिय जीव बेहोश हुए आदमी के समान अचेत अवस्था में पड़े रहते हैं । वहां भी बारबार उन्हीं-उन्हीं योनियों में जन्म लेकर और मर कर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में असंख्यात काल तक और वनस्पतिकाय में अनन्त काल तक नारक के समान असीम और अवांछनीय दुःख पाते हैं । एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद का स्पष्टीकरण - एकेन्द्रिय जीवों के मुख्य भेद पांच हैं -- पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । इन पांचों के सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार हैं । इनका स्वरूप हम इसी चौथे सूत्र के पूर्व मूलपाठ की व्याख्या में बता आए हैं । इन पूर्वोक्त १० भेदों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक रूप से दो भेद हैं । जिनका शरीर आदि पूर्ण बन जाता है, वे पर्याप्तक और जिनका शरीर पूर्ण नहीं बन पाया या नहीं बनेगा, वे अपर्याप्तक कहलाते हैं । अपर्याप्तक के भी दो भेद हैं - निर्वृत्ति 'अपर्याप्तक और लब्धि अपर्याप्तक । जिनका शरीर अभी तक पूर्ण नहीं हुआ, किन्तु उसमें पूर्ण होने की योग्यता है, उन्हें निर्वृत्ति अपर्याप्तक कहते हैं और जिनका शरीर पूर्ण होने से पहले ही मरण हो जाता है, उन्हें लब्धि- अपर्याप्तक कहते हैं ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy