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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र १२० स्पष्ट वर्णन शास्त्रकार ने मूलपाठ में किया है, अतः इसके बारे में विशेष स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । 'सीउन्हें' से लेकर 'दवग्गिजालदहणाइयाई य' तक का पाठ तिर्यञ्चयोनि के दुःखों की कहानी अपने आप कह रहा है, और ये सारे और इसी से मिलते जुलते अन्य सैकड़ों दुःख तिर्यञ्च योनि के जीवों पर आ पड़ते हम सब देखते हैं । विविध दुःखों से पीड़ित तिर्यञ्चों द्वारा नये दुःखदायक कठोर कर्मों का उपार्जन - यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अत्यन्त दुःख में प्राणी भान भूल जाता है, उसे अपनी आत्मा का बोध होना तो दूर रहा; अपने भविष्य के बारे में भी कोई चिन्तन नहीं होता; और न अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए कोई उपाय ही सूझता है । नरकगति के सैकड़ों घोरातिघोर दारुण दुःखों से प्रज्वलित होकर एवं पूर्व कर्मों में भोगने से बचे हुए कर्मों का जत्था साथ लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय योनियों में आए हुए पापात्मा जीव भी यहाँ पूर्व अभ्यास, संस्कार, अज्ञान और मोहवश तथा प्रमाद, राग (मोह), और द्वेष के कारण अत्यन्त दुःखजनक और कठोर बहुत-से कर्मों का संचय - उपार्जन कर लेते हैं । इसी बात को शास्त्रकार स्पष्ट करते हैं— 'एवं ते दुक्ख - सयसंपलिता नरगाओ आगया इहं सावसेसकम्मा तिरिक्खपंचेंदिएसु पार्वति पावकारी कम्माणि पमाय-राग-दोस - बहुसंचियाई अतीव अस्सायकक्कसाई ।' आशय यह है कि अनेक दुःखों से घिरे होने के कारण पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि में भी जीव पुराने कर्मों को क्षय तो कर नहीं पाता ; क्योंकि वह दुःखों को हायतोबा मचाते हुए आर्त्त' रौद्रध्यानग्रस्त होकर भोगता या सहता है । इस कारण अज्ञान, राग, द्वेष या प्रमादवश नये कर्मों का जत्था इकट्ठा कर लेता है। दुष्कर्मों की परम्परा जहाँ एक बार चली कि वह फिर विविध योनियों में या कुगतियों में जाने के बाद भी अपने परिवार को बढ़ाती ही हैं, घटाती नहीं । निष्कर्ष यह है कि वह पूर्व कर्मों का भुगतान तो कर ही नहीं पाता, और नये कर्मों का जत्था संचित कर लेता है । जिन्हें भोगना बड़ा दुष्कर और कठिन होता है । जैसे कोई कर्जदार अपने साहूकार से लिए कर्ज का मूलधन तो चुका ही नहीं पाए, अपितु लाचार होकर और नया कर्ज सिर पर चढ़ा ले तो उसे कर्ज चुकाना कितना कष्टकारक और अप्रिय लगता है, वैसे ही नरक से तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में आया हुआ जीव भी पुराने दुष्कर्मों का कर्ज तो अभी तक चुका नहीं पाया, किन्तु प्रमाद राग द्वेष आदि विकारों के वशीभूत होकर अशुभ कर्मों का नया कर्ज और सिर पर चढ़ा लेता है । कर्मों के अतिसंचय के कारण - प्रस्तुत पाठ में 'पमाय-राग-दोस - बहुसंचियाई' कहा है । उसका आशय यह है कि कर्मों का बहुत-सा संचय प्रमाद, राग और द्वेष के कारण होता है । प्रमाद के ५ भेद हैं-मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा । मद बढ़ाने वाले जितने भी पदार्थ हैं, वे सब के सब सुबुद्धि को लुप्त कर देते हैं,
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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