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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
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इसलिए कहीं-कहीं 'मद' के बदले मद्य (मदिरा) शब्द भी मिलता है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों में लुब्ध होकर प्राणी आत्मभान भूल जाता है, उसे विषयों का इतना नशा चढ़ जाता है कि वह उसमें चूर होकर अहिंसा आदि कर्तव्यों को भूल जाता है । क्रोधादि चार कषायों में भी हिंसा एवं क्रूरता का भाव वढ़ जाता है । द्रव्य निद्रा में भी मनुष्य आलस्यवश हो जाता है, अतः अहिंसा का स्वरूप जानते हुए भी पुरुषार्थ नहीं कर पाता । भावनिद्रा तो और भी भयंकर है, उसमें तो मनुष्य वातबात पर असावधान होकर गलतियां करता है, पद-पद पर गफलत के कारण भूलें कर बैठता है । कहीं-कहीं 'निद्रा' के बदले 'निन्दा' शब्द भी मिलता है; परन्तु निन्दा, चुगली, गाली, अपशब्द प्रयोग आदि सब वाणी के प्रयोग में असावधानी के कारण होते हैं, इसलिए निद्रा में ही निन्दा का समावेश हो जाता है। अब रही विकथा । वह स्त्री विकथा, भक्त (भोजन) विकथा, राजविकथा और देशविकथा के भेद से ४ प्रकार की हैं । ये चारों विकथाएँ जीवन में राग-द्वष आदि, विकार पैदा करती हैं, इसलिए कर्मबन्ध की कारण हैं । यही कारण है कि ये पाँचों प्रकार के प्रमाद कर्मों का बहुत अधिकमात्रा में और शीघ्र बंध करते हैं। . इसी प्रकार राग और द्वेष भी कर्मों को शीघ्र और अतिमात्रा में संचित करने के कारण हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- रागो य दोसो विय कम्मबीयं' 'राग
और द्वष ये दोनों कर्मों के बीज हैं।' मोह, स्वार्थ, अविवेक, मूढ़ता, लोभ, तृष्णा, लालसा, लोलुपता, आसक्ति, माया, मूर्छा, दुःसंग आदि सब राग के ही परिवार हैं।
और क्रोध, घृणा, वैर, विरोध, दुश्मनी, द्रोह, ईर्ष्या, असूया, डाह (मत्सर), अभिमान, प्रतिस्पर्धा, नीचा दिखाने या दूसरों को गिराने या सताने की भावना, ये सब द्वष के के परिवार हैं । राग और द्वष अपने परिवारसहित तीव्र गति से भयंकर से भयंकर दुष्कर्मों का बंध करते हैं । हिंसा में भी राग, द्वष और कषाय ही निमित्त होते हैं।
तिर्यञ्च योनि के मुख्य भेद-शास्त्रकार ने तिर्यञ्चयोनि के मुख्य पाँच भेद बताए हैं—पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय । पञ्चेन्द्रिय में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव चारों प्रकार हैं। उनमें से सिर्फ जलचर, स्थलचर, खेचर, उर:परिसर्प और भुजपरिसर्प ये पाँच प्रकार के पशुपक्षी आदि की ही गणना तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में होती है, बाकी के एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों की गणना एकान्त तिर्यञ्च में ही होती है। मतलब यह है कि तिर्यञ्च योनि का परिवार बहुत ही लंबा चौड़ा है।
___तिर्यञ्चयोनियों को कुलकोटियाँ-उच्च या नीच गोत्रों के प्रकृतिविशेष के उदय से प्राप्त होने वाले वंशों को कुल कहते हैं। उन कुलों के समूह या कुलों की विभिन्न श्रेणियों (दों) को कोटि कहते हैं । वास्तव में यहाँ 'कुल कोटि' शब्द जीवों के उत्पत्ति स्थान के प्रकारों या किस्मों के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। जैसे तिर्यञ्च