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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव ११६ नरकगति में जैसे मृत्यु की अवधि निश्चित होती है, वैसे तिर्यञ्चगति में मृत्यु की अवधि पूर्णतः निश्चित नहीं होती ; और न नारकों की तरह तिर्यञ्चों का जन्म ही खतरे से रहित होता है। कई तिर्यञ्च पशु पक्षी या विकलेन्द्रिय जीव तो जन्म लेते ही तुरन्त मर जाते हैं। मां के गर्भ में, अंडे के खोल में, या वृक्षों के खोखले में अथवा मकानों में विविध छिद्रवाली जगहों या गुफा, खोह आदि जगहों में वहीं के वहीं खत्म हो जाते हैं या दूसरे जानवरों या मनुष्यों द्वारा खत्म कर दिये जाते हैं। उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होती। तिर्यंचगति में बार-बार उसी-उसी योनि में जन्म और मृत्यु का चक्र चलता रहता है, बुढ़ापे और व्याधियों के दौर भी चलते रहते हैं। बैल आदि पशु बुढ़ापा आने पर या बीमारियों से घिर जाने पर असहाय, पराधीन और विवश हो जाता है, फिर भी उसका स्वार्थी मालिक निर्दयतापूर्वक बेचारे उस मूक प्राणी से काम लेता रहता है, वह उसे मारता-पीटता भी है। उसे बीमारी में कोई दवा देने वाला नहीं रहता, न उसे अपने जन्मदाता माता-पिता ही बड़ी उम्र में कोई मदद करते हैं। प्रायः उसका अपने माता-पिता से वियोग हो जाता है। क्योंकि बड़ा होते ही मालिक उसे दूसरे के हाथों बेच देता है। इसलिए तिर्यञ्चगति में असहायता, अनाथता, अशरणता, अरक्षा, पराधीनता का भयंकर दुःख है। इसके सिवाय जलचर आदि जीवों में परस्पर एक दूसरे के घात-प्रतिघात की परम्परा चलती रहती है ; जिसके कारण रातदिन प्राणों के वियोग का खतरा बना रहता है। इस खतरे से बचने का कोई उपाय भी तो उन तिर्यञ्चजीवों के पास नहीं ; जहाँ बैठकर, रहकर या छिपकर अथवा आश्रय लेकर वे त्राण पा सकें। जल में छोटी मछली को बड़ी मछली निगल जाती है, बड़ी मछली को भी मगरमच्छ आदि निगल जाते हैं, इसी प्रकार सर्प को मोर अथवा नेवला, चूहे को बिल्ली, बकरी को सिंह, कबूतर को बाज देखते ही पकड़ लेता है ; इन निर्बलों के पास सबलों से · बचने का कोई उपाय या स्थान भी नहीं होता। इसलिए यह निरुपायता तिर्यंचों को मन मार कर सहनी पड़ती है। इसी कारण तिर्यञ्चगति अत्यन्त दारुण और दुःख से पार करने योग्य बताई है। तिर्यञ्च योनि में प्राप्त होने वाले दुःख-नरकभूमियों के दुःखों के प्रत्यक्ष न होने से कदाचित् कोई बुद्धिजीवी उन्हें मानने से इन्कार कर दे, परन्तु तिर्यञ्च योनियों में प्राप्त होने वाले भयंकर से भयंकर दुःख तो सारे संसार के सामने प्रत्यक्ष हैं, अनुभव सिद्ध हैं और जगत् में प्रसिद्ध हैं। अतः तिर्यञ्चगति में होने वाले दुःखों से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता। इसी बात को स्पष्ट करते हुए मूलपाठ में कहा है—'इमं च जगपागडं वरागा दुक्खं पावेंति दोहकालं।' अर्थात्--'बेचारे वे दीन हीन प्राणी दीर्घकाल तक इस प्रत्यक्ष दृश्यमान और जगत्प्रसिद्ध दुःख को पाते हैं।' तिर्यञ्चयोनि में किस-किस प्रकार से और कैसे-कैसे दुःख मिलते हैं ? इसका
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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