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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
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कर तीर्थंकर तक हो सकते हैं; चौथी नरकभूमि से मर कर नारक केवलज्ञानी हो सकते हैं, पांचवीं नरकभूमि से मर कर नारक मुनिव्रतधारी हो सकते हैं, छठी नरकभूमि से मर कर नारक श्रावकव्रती - अणुव्रती श्रावक हो सकते हैं और सातवीं नरकपृथ्वी के नारक मर कर सम्यक्त्वी संज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय हो सकते हैं ।
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इसका आशय यह है कि जीवहिंसा करने वाले जीव पहले तो मरकर अति रौद्रध्यानवश नरक में जाते हैं, फिर वहाँ भी रातदिन सतत नाना दुःखों और यातनाओं से पीड़ित होने के कारण वे धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान की बात तो सोच ही नहीं सकते हैं, अपनी आत्मा का भान भी उन्हें नहीं होता इस कारण दुःखों से संक्लिष्ट होकर वे उनसे बचने के लिए आर्त्तध्यान - रौद्रध्यान के अलावा माया भी करते हैं । इसी कारण वे मर कर प्रायः तिर्यञ्चयोनि में पैदा होते हैं । बहुत विरले नारक ऐसे होते हैं, जिन्हें अपने पूर्व मनुष्यभव में ही क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो गया हो, वे वहाँ शान्तभाव-समताभाव में रहकर दुःखों को भोगते हैं, और विशुद्ध पश्चात्ताप तथा आत्मनिन्दा करके अपने कर्मों का क्षय करते हैं । वे ही थोड़े-से नरकगत जीव वहाँ की आयुष्य स्थिति पूर्ण हो जाने के पश्चात् वहाँ से मरकर तीर्थंकर, केवली, मुनिव्रती, श्रावक या सम्यक्त्वी होते हैं । अधिकांश तो तिर्यञ्चयोनि में ही पैदा होते हैं ।
तिर्यञ्चयोनि का स्वरूप — तिर्यञ्चगति में भी नरक के समान दीर्घकाल तक दुःख भोगना पड़ता है । इतना अन्तर अवश्य है कि नरकगति के जितने क्षेत्रकृत, कालकृत और परस्परकृत दुःख तिर्यंचगति में नहीं होते । परन्तु नरकगति में नरकभूमियों में रहने वाले समस्त नारकीय जीवों के वैक्रियलब्धि होती है, इस कारण वे भयंकर से भयंकर शारीरिक दुःख पाने और सह लेने के बाद वापिस उनका शरीर पुनः वैसा का वैसा तैयार हो जाता है, बिखरा हुआ पारा जैसे पुनः मिल जाता है, वैसे ही उनका शरीर पुनः मिल जाता है; अतः अकाल में ही उनका मरण नहीं होता । जिसका जितना आयुष्य बंधा हुआ होगा, वह नारक उतना पूर्ण आयुष्य भोग कर ही मृत्यु पाता है, पहले नहीं । मगर तिर्यञ्चयोनि में ऐसा नहीं होता । यहाँ वैक्रिय शरीर जन्म से प्राप्त नहीं होता । इसलिए तिर्यञ्चगति के जीवों का शरीर अंगभंग होने या घातक चोट आदि लगने पर अकाल में ही कालकवलित हो जाता है । वहाँ शरीर के अंगोपांगों का शीघ्र जुड़ना होता नहीं; या कटा हुआ अवयव प्रायः पुनः मिलता नहीं । इसी कारण शास्त्रकार तिर्यञ्चगति के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैंतिरियवर्साह दुक्खुत्तार सुदारुणं जम्मणमरणजरावाहिपरियट्टणारहट्ट जलथल खहचर - परोप्परविहिंसणपवंचं '; अर्थात् — तिर्यञ्चयोनि दुःख से पार की जाने वाली व अत्यन्त भयंकर है, जिसमें रेहट के समान जन्म, मरण, बुढ़ापे और व्याधियों के चक्र चलते रहते हैं और जहाँ जलचर, स्थलचर, खेचर आदि जीवों में परस्पर हिंसा - प्रतिहिसा का प्रपंच चलता रहता है ।'