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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव ११७ ने जाने-अजाने स्वयं बोए हैं । इसीलिए मूलपाठ में कहा गया है—'पुव्व कम्मोदयोवगता' अर्थात् पूर्वकृत कर्मों के उदय को प्राप्त । फल भोगते समय पश्चात्ताप-जिस समय जीव हिंसा आदि पापकर्म करता है, उस समय वह भविष्य का विचार नहीं करता, उसकी बुद्धि पर अज्ञान और मोह का पर्दा पड़ा रहता है, जिसके कारण वह दूरदर्शिता से उस कर्म के भावी नतीजे पर बिलकुल नहीं सोचता । किन्तु जब वे ही कर्म उदय में आते हैं और उसे उनका कटु फल भोगने को विवश होना पड़ता है, तब उसे अपने किये हुए कर्मों पर ग्लानि पैदा होती है, मन में घोर पश्चात्ताप होता है, फलतः वह अपने आप की भी निन्दा करने लगता है ; इससे उसके पापकर्म कुछ हलके अवश्य हो जाते हैं । हिंसक जीवों की इसी मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं—'पुव्वकम्मोदयोवगता पच्छाणुसएण उज्झमाणा णिदंता पुरेकडाई कम्माई पावगाई' ; अर्थात्-पूर्वकृत कर्मों के उदय में आने पर--फल भुगवाने के लिए उद्यत होने पर--अपने पूर्वकृत पापकर्मों की निन्दा करते हुए वे पश्चात्ताप की आग में जलते हैं। किन्तु पश्चात्ताप करते हुए भी वे बेचारे नारकीय जीव रत्नप्रभा आदि नरक भूमियों में अत्यन्त चिकने, जिनको भोगे बिना छुटकारा ही नहीं हो सकता ; ऐसे निकाचित कर्मों के बन्ध के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दुःखों का अनुभव करते हैं । इसी बात को शास्त्रकार स्पष्ट करते हैं--'तहिं तहिं तारिसाणि ओसण्णचिक्कणाई दुक्खाई अणुभवित्ता।' नरकगति के बाद तिर्यञ्चगति में आगमन–सवाल यह उठता है कि वे नारकीय जीव आयुष्यक्षय हो जाने पर नरक से पुन: नरक में क्यों नहीं जाते ? जैन सिद्धान्त की दृष्टि से इसका समाधान यह है कि नारक जीव नरक का आयुष्य क्षय हो जाने के पश्चात् नरक से निकल कर सीधा पुनः नरक में नहीं जा सकता। हाँ, मनुष्यगति या तिर्यञ्चगति में जन्म लेकर बाद में नरक में जा सकता है। इसी प्रकार देवगति के देव अपनी आयु क्षीण हो जाने के बाद देवलोक से च्यव (मर) कर सीधे नरक में पैदा नहीं होते और न वे पुनः सीधे देवपर्याय ही धारण कर सकते हैं । यही कारण है कि शास्त्रकार ने मूलपाठ में बताया है-तत्तो आउक्खएण उव्वट्टिया समाणा बहवे गच्छंति तिरियवसहिं ।' अर्थात्—'आयुष्य का क्षय हो जाने पर नरक से निकले हुए बहुत-से जीव तिर्यञ्चयोनि में पहुंचते हैं।' इस सूत्रपाठ में 'बहवे' शब्द स्पष्ट सूचित करता है कि नरक से निकले हुए अधिकांश जीव तिर्यञ्चयोनि को ही प्राप्त करते हैं । प्रश्न होता है कि कुछ थोड़े से नारक, जो तिर्यञ्च गति में नहीं जाते, वे कहाँ जाते हैं ? सिद्धान्त की दृष्टि से इसका उत्तर यह है कि प्रायः तो तिर्यञ्चयोनि में या दुर्भागी मनुष्य कुलों में जन्म लेते हैं ; कुछ विरले जीव ही ऐसे बचते हैं जिनके लिए यह सिद्धान्त है कि पहली नरकपृथ्वी से लेकर तीसरी नरकपृथ्वी तक के नारक मर
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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