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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा - आश्रव १११ सहस्सेह) नौ लाख जन्म लेने के कुलों (उत्पत्ति स्थानों) में, (तह तह चेव) उन-उन में ही, ( जम्मणमरणाणि) जन्म-मरण का (अणुहवंता) अनुभव करते हुए, (नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा) नारकों के समान तीव्र दुःखों से युक्त (फरिस - रसण घाण-चवखुसहिया) स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु सहित चार इन्द्रियों वाले जीव, ( संखेज्जकं ) संख्यात, (काल) काल तक, ( भमंति) भ्रमण करते हैं । ( तहेव ) उसी प्रकार, ( तेइ दिए ) तीन इन्द्रियों वाले जीवों में, (तेइंदियाण) तीन इन्द्रियों वाले (कुंथुपिप्पीलया - अधिकादिकेसु) कुंथुआ, चींटी, अंधिक आदि जीवों की योनियों में जन्म लेने के (अणूणएहि ) पूरे (अट्ठहिं) आठ (जाइकुलकोडिसयस हस्से हिं) लाख कुलकोटि 1 उत्पत्ति स्थान हैं (ह तहि चेव) उन-उन में ही ( जम्मणमरणाणि) जन्म-मरण का, (अणुहवंता) अनुभव करते हुए (नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा ) नारकों के समान ही तीव्र दु:ख वाले, (फरिसरसणघाणसंपउत्ता) स्पर्शन, रसन और घ्राण से युक्त तीन इन्द्रियों वाले जीव, ( संखेज्जयं कालं ) संख्यातकाल तक (भमंति) भ्रमण करते हैं । (य) तथा (बे दियाण) दो इन्द्रिय वाले जीवों के, (गंडूलयजलूयकिमिय चंदणगमादिएसु) गिडोले ( गेंडुए), अलसिए, जोक, घोंघे आदि में जन्म लेने के, (अणूणएहि ) पूरे, ( सत्तजाइकुलकोसिस हस्सेसु) सात लाख जीवों के उत्पत्ति स्थान हैं, (तहि तहि चेव) उनउनमें ही, (जम्मणमरणाणि) जन्ममरण का, (अणुहवंता) अनुभव करते हुए, नेरइयसमाण तिव्व दुक्खा ) नारक जीवों के समान तीव्र दुःखों से युक्त (फरिसरसणसंपउत्ता) स्पर्शन और रसना इन्द्रिय से युक्त दो इन्द्रियों वाले जीव (संखिज्जकं कालं ) संख्यात काल तक (भमंति) भ्रमण करते हैं । (य) और (एगिंदियत्तणंपि) एकेन्द्रियत्व (पत्ता) प्राप्त किये हुए ( पुढवी- जल-जलण - मारुय - वणफ्फति) पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय के जीव हैं। इनमें से प्रत्येक के ( सुहुमबायरं ) सूक्ष्म और बादर भेद हैं, (य) तथा ( पज्जत्तं अपज्जत्तं) पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद भी होते हैं, तथैव वनस्पति (पत्तेयसरीरणाम) प्रत्येक शरीर नाम कर्म वाले प्रत्येक शरीरी जीव (च) और (साहारणं) साधारण नामकर्म वाले साधारणशरीरी जीव, इस प्रकार दो भेद और भी हैं । (य) और ( तत्थ वि) उनमें भी जो (पत्तेयसरीरजीविएसु ) प्रत्येक शरीर में रहने वाले जीव हैं, उनमें, (असंखेज्जकं ) असंख्यात, ( कालं) कालतक (च) और (अनंतकाए) साधारण शरीरों में, (अनंतकालं) अनन्त काल तक (भमंति) भ्रमण करते हैं । ( फासिंदियभावसंपउत्ता) स्पर्शनेन्द्रिय पर्याय को पाये हुए एकेन्द्रिय जीव, (पुणो पुणो ) बारबार ( परभवत रुगणगहणे ) उत्कृष्टकाल तक दूसरे भवों में उत्पत्ति के स्थानरूप वृक्षादि समूह से गहन, (तहि तहि चेव ) उसी एकेन्द्रिय पर्याय में, (इ) इस आगे कहे जाने वाले (अणिट्ठ) अनिष्ट, ( दुक्खसमुदयं) दुःख समूह को, (पार्वति ) पाते रहते हैं । (कोद्दाल- कुलिय- दालण-सलिलमलण- खुरं भण-रु भण- अणला णिलविविहसत्थ- घट्टण - परोप्पराभिहणण-मारणविरहणाणि) कुल्हाड़ े और हलसे भूमिका
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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