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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव १०१ के बिना अमुक अवधि (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की) तक की बात जानी व देखी जा सकती है । यद्यपि वह अवधि ज्ञान मिथ्या दृष्टि नारकों को विभंग ज्ञानरूप होता है और बहुत ही थोड़े क्षेत्र का होता है । पहली नरकभूमिके नारक ४ कोस तक का क्षेत्र अवधि ज्ञान द्वारा जान या देख सकते हैं, दूसरी नरकभूमि के साढ़े तीन कोस तक, तीसरी के ३ कोस तक, चौथी नरकभूमि के २॥ कोस तक, पांचवी के दो कोस क्षेत्र तक, छठी के १।। कोस क्षेत्र तक और सातवीं नरक पृथ्वी के नारक १ कोस क्षेत्र तक की बात को जान-देख सकते हैं । यही कारण है कि उन्हें पूर्व जन्म के पाप कर्मों की स्मृति हो जाती है । पूर्व जन्म के शुभ कार्यों का उन्हें स्मरण नहीं होता; सिर्फ अशुभकार्यों या बातों का ही स्मरण उन्हें होता है। इसीलिए 'सराहि' (स्मरण कर) पद कहा। ___ नारक स्वयं अपने कृतकर्मों का दुष्फल स्वयं नहीं भोगना चाहता । हर साधारण व्यक्ति दुष्कृत्य के फल से बचने का प्रयत्न करता है। वह चाहता है, मुझे अपने कुकर्मों का फल न मिले । इसलिए वे परमाधामी यमकायिक देव नारकियों को भयंकर से भयंकर सजा देते हैं और उन्हें उकसा-उकसाकर लड़ाते हैं, नाना प्रकार की यातना देने में वे कोई कोरकसर नहीं छोड़ते। मारकों द्वारा परस्पर दी जाने वाली पातनाएँ-तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है'परस्परोदीरितदुःखाः' नारकीय जीव पुराने वैर, झगड़े, दुर्व्यवहार आदि का जन्म से प्राप्त विकृत अवधिज्ञान (विभंगज्ञान) के प्रभाव से स्मरण करते हैं और एक दूसरे को मारने-पीटने लगते हैं। वे पूर्वजन्म का वैर स्मरण करके उसे शान्त करने की अपेक्षा तीव्र क्रोधावेश में आकर वैर वसूल करते हैं। एक नारकी शस्त्र बन जाता है, दूसरा उसे उठाकर मारता है । विक्रिया लब्धि के प्रभाव से कोई कड़ाही बन जाता है, कोई अग्नि और कोई तेल बन जाता है और उस गर्मा-गर्म तेल में कोई किसी को उठाकर फेंक देता है । इस प्रकार नारकियों को प्राप्त अवधि ज्ञान और विक्रियालब्धि. उन्हीं के मरने-मारने के काम आती है। यानी इन दोनों से वे एक दूसरे को निरंतर कष्ट देने में लगे ही रहते हैं। ये दोनों लब्धियां नारकों के लिए वरदान के बजाय अभिशाप रूप बनती हैं। क्योंकि नरक में शरीर आदि जितनी भी वस्तुएं मिलती हैं, वे सबकी सब असाता की ही निमित्त होती हैं , उत्तम निमित्तों को पाकर भी वे अपने लिए दुःख का बीज बोते हैं, एक दूसरे के लिए दुःख को उभाड़ते हैं। पुरानी तुच्छ बातों को याद करके कुरेदते रहते हैं और एक दूसरे को भड़काकर परस्पर गुत्थमगुत्था हो जाते हैं । इस प्रकार नारक लोग दुःख की परम्परा बढ़ाकर, तीव्र क्रोध के वशीभूत होकर, असहिष्णु बनकर निरन्तर दुःख ही दुःख में सारी जिंदगी बिताते हैं । यही बात शास्त्रकार ने सूचित की है . 'अणुबद्धतिव्ववेरा परोप्परं वेयणं उवीरेंति अभिहणंता।'
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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