SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रय इन चारों प्रकार के कर्मबन्धों के जत्थे के अनुसार किसी भी जीव को शुभाशुभ गति, योनि और तदनुकूल ही सुखदुःखादि रूप फल प्राप्त होते हैं। नारकीय जीवों को भी इन चारों प्रकार के कर्मबन्धों के जत्थे के फलस्वरूप अशुभ भयंकर नरकगति, नरकयोनि और नरकायु मिलती है तथा तदनुकूल ही अपार दुःख, शारीरिक-मानसिक तीव्र वेदना, भयंकर से भयंकर यातनाएं मिलती हैं । जिसका विशद वर्णन शास्त्रकार ने मूलपाठ में स्वयं किया है। नारकों की लम्बी स्थिति—इस मनुष्य लोक में भी देखा जाता है कि जो जितना बड़ा अपराध करता है, उसे उतनी ही लम्बी जेल की सजा और वह भी सख्त सजा दी जाती है। इसी प्रकार जो जितना बड़ा अपराध या महापाप करता है, उसे उतनी ही लम्बी अवधि की सजा नरक के रूप में मिलती है। इसीलिए पूर्वोक्त सातों नरकों की स्थिति भी क्रमशः अधिकाधिक होती गई है। नीचे सात नरकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति की तालिका दी जा रही हैजघन्यस्थिति १० हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति प्रथम नरक भूमि रत्नप्रभा .. १ सागरोपम दूसरी नरकभूमि शर्कराप्रभा तीसरी नरकभूमि बालुकाप्रभा चौथी नरकभूमि पंकप्रभा पांचवी नरकभूमि धूमप्रभा १७ छठी नरकभूमि तमः प्रभा सातवीं नरकभूमि तमस्तमः प्रभा असंख्यात वर्षों का एक पल्योपम काल होता है और दश कोड़ा-क्रोड़ पल्योपम का एक सागरोपम काल होता है । इतने लम्बे समय तक नारकी जीवों को नरक में लाजमी रहना होता है, और सतत छेदन-भेदन आदि के महान् दुःखों को सहना पड़ता है । इतनी लम्बी नरक की सजा के दौरान नारकी जीव वहाँ से कहीं भाग कर छूट नहीं सकता, और न आत्महत्या ही कर सकता है। क्योंकि नरक के जीवों का आयुष्य बीच में किसी भी कारण से टूटता नहीं है। आयुष्य का बंध पूर्व जन्म से जितनी अवधि तक का होता है, उससे एक क्षण भी कम नहीं हो सकता, उतनी अवधि तक भोगना अनिवार्य होता है। इसीलिए शास्त्रकार ने बताया है-'बहणि पलिओवम सागरोवमाणि कलुणं पालेति ते अहाउयं ।' अर्थात् वे नारकी जीव बहुत पल्योपम और सागरोपमों तक की आयु दीनतापूर्वक रिब रिब कर बिताते हैं।' नरकपालों द्वारा नारकों को दी जाने वाली यातनाएं-मनुष्य लोक में जब कोई चोरी या हत्या जैसा भयंकर अपराध करता है तो पुलिस वाले उसे पकड़कर थाने
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy