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________________ . श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र प्राणी को गति,आयु, योनि आदि प्राप्त होती है। यहाँ नारकियों को जो नरकभूमि मिलती है और नरक में इतना भयंकर दुःख मिलता है, वह सब पूर्व जन्मकृत अशुभ कर्मों के जत्थे के कारण ही है। कई कर्म ऐसे होते हैं, जिनका फल तुरन्त या इसी जन्म में ही मिल जाता है। कई कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल दूसरे जन्म में या अनेक जन्म के बाद मिलता है। गति कर्म और आयु कर्म का फल सदा अगले जन्म में मिला करता है। जैसी मति या योनि मिलती है, उसी के अनुसार उसे शुभ या अशुभ फल भी मिलता है। - सारांश यह है कि जीव स्वयं ही अपने मन-वचन-काया की प्रवृत्ति के कारण कर्मबन्ध करता है और अन्तिम समय में कर्मों के जत्थे के अनुसार उसे गति व योनि मिलती है, और तदनुसार ही उसे सुफल या दुष्फल भोगना पड़ता है । कर्मबन्ध के प्रकार--प्रसंगवश हम यहाँ कर्मबन्ध के प्रकारों का भी संक्षेप में परिचय दे देते हैं । कर्मबन्ध के ४ प्रकार हैं--प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग (रस) बन्ध और प्रदेशबन्ध । प्रकृति का अर्थ स्वभाव है। जैसे नीम की प्रकृति कड़वी और ईख की प्रकृति मीठी है,वैसे ही कर्मों की प्रकृति जीव के ज्ञान आदि शक्तियों को रोकने की है। प्रकृतिबन्ध मन-वचन-काया की प्रवृत्ति (व्यापार) से होता है। प्रकृतिबन्ध मूलतः आठ प्रकार का है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं। __ कर्म करते समय संसारी जीवों के समय-समय में अनन्त कर्मपरमाणुओं का बन्ध होना प्रदेशबन्ध कहलाता है। यह भी मन-वचन-काया की प्रवृत्ति (व्यापार) से होता है। कहा भी है-. 'जोगा पयडिपदेसा ठिइ-अणुभागा कषायदो होति ।' यानी योग (मन-वचन-काया के व्यापार) से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होता है तथा कषाय (क्रोधादि) से स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है। क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों से बंधे हुए कर्मों में स्थिति (अमुक समय तक कर्मों की आत्मा के साथ टिके रहने की अवधि) का बन्ध होना, स्थितिबन्ध कहलाता है । जैसे जहाँ चिकनाई हो, वहाँ धूल ज्यादा देर तक चिपकी रहती है, जहाँ चिकनाई न हो वहाँ धूल तुरन्त खिर जाती है या उड़ जाती है, वैसे ही आत्मा पर कषायों की चिकनाई जितनी न्यूनाधिक होगी, उतनी अवधि तक आत्मा के साथ कर्मरज लगी रहती है। कषाय तीव्र होता है तो दीर्घकाल की स्थिति, मंद होता है तो थोड़े काल की और मध्यम होता है तो मध्यम स्थिति का बन्ध होता है। कर्मों में शुभाशुभफल देने की तीव्रता-मंदता रूप शक्ति का बंधना अनुभागबन्ध है । अनुभागबन्ध भी कषायों के अनुसार ही होता है। तीव्र कषाय होगा तो तीव्र अनुभागबन्ध होगा, मध्यम होगा तो मध्यम और मन्दकषाय होगा तो मंद अनुभागबन्ध होगा।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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