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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव जहाँ ईश्वर या खुदा को कर्मफल भुगवाने वाला माना जाता है, वहाँ मनुष्य बेखटके दुष्कर्म करता रहता है, उसे चिन्ता नहीं होती कि मुझे इसका कुफल मिलेगा या दण्ड मिलेगा। वह इसी भ्रम में रहता है कि फल भोगने के समय ईश्वर से मिन्नतें कर लूगा, उसकी खुशामद करके, उसकी स्तुति या प्रार्थना करके उसके सामने अपराधों या पापों को स्वीकार करके उसे मना लूगा और उस कुफल से बच जाऊंगा। ईश्वर को इस तरह अगर खुश कर लिया जाता तो संसार में किसी को सदाचार या अहिंसा आदि के पालन की जरूरत ही नहीं रहती। परन्तु ईश्वर इस तरह कदापि प्रसन्न नहीं होता। वह रागी, मोही या द्वंषी नहीं है, वह तो वीतराग है और संसार से अलिप्त है। इसलिए हिंसारूप पाप कर्म अगर कोई करेगा तो उसके दुष्परिणाम भोगने के समय उसे संतप्त और पीड़ित होना ही पड़ेगा, उस समय कोई मिन्नत, प्रार्थना या स्तुति काम नहीं आएगी। कई लोगों का यह कहना है कि इससे आगे पुनर्जन्म है ही नहीं। यह शरीर यहीं समाप्त हो जाता है। मनुष्य के कर्मों का फैसला कयामत के दिन ईश्वर करता है, उस दिन सब आत्माए (रूहें) ईश्वर के निर्णय को स्वीकार करके, उन्हें प्रसन्न करके अपराध से बरी हो जायेंगी। परन्तु यह भी भयंकर भ्रान्ति है। आजकल के पुनर्जन्मविज्ञानवेताओं द्वारा प्रमाणित प्रत्यक्ष घटनाओं से पुनर्जन्म सिद्ध है। जिस धर्म या मजहब वाले लोग पुनर्जन्म को नहीं मानते थे, उन्हें भी इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के कारण इसे मानना पड़ता है। अनुमान प्रमाण से भी पुनर्जन्म सिद्ध होता है। क्योंकि यदि पुनर्जन्म (इस जीवन के आगे कोई और जन्म) न होता तो फिर धर्म पालन करने की, शुभ कर्म करने की या कर्मक्षय के लिए साधना करने की जरूरत ही क्या रहती ? हिंसा आदि दुष्कर्म करने वाले और अहिंसा आदि सद्धर्म का आचरण करने वाले दोनों एक समान होते, दोनों को समान ही फल मिलता। परन्तु ऐसा होना असंभव है। अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य या देवगति में जाता है, वह पुनर्जन्म होने के कारण ही। अन्यथा, कई लोग, जो यहाँ शुभ कर्म करते हैं या धर्माचरण करते हैं, फिर भी दुःखी, निर्धन या पीड़ित रहते हैं, उन्हें उस शुभाचरण या धर्माचरण का सुफल तत्काल या इस जन्म में नहीं मिलता है तो आगे के जन्म में तो मिलेगा ही। इसी आशा से वे ऐसा करते हैं । इसलिए पुनर्जन्म स्वतः ही सिद्ध है। हाँ, यह बात जरूर है, एक जिंदगी के सारे शुभाशुभ कर्मों का जत्था इकट्ठा होने पर जिस प्रकार के कर्मों की संख्या अधिक होती है या प्रबलता होती है, उसी के अनुसार भविष्य में उसकी गति और आयु का बन्ध होता है। इसीलिए प्राणी को पूर्व कर्म के संचय से संतप्त कहा है। यानी पूर्वजन्मों के कर्मों की टोटल मिलने पर जिन कर्मों की संख्या अधिक होती है उसके अनुसार ही
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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