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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव हाय रे ! अब क्या होगा ? हे कठोर,निर्दय होकर इस प्रकार मुझ पर प्रहार मत करो ! मुझे क्षणभर (मुहूर्त मात्र) दम लेने दो, कृपा करो, क्रोध मत करो, मैं जरा विश्राम ले लू,मेरी गर्दन में पड़ी हुई फांसी खोल दो, मैं मरा जा रहा हूं, प्यास से अत्यन्त पीड़ित हूँ, मुझे पानी पिला दो।" नारकीय जीवों द्वारा इस प्रकार कहने पर वे यमपुरुष असुरकुमारदेव कहते हैं-'ले नारक ! यह साफ और ठंडा पानी पीले ।' यों कहते हए वे नरकपाल तपे हए सीसे को लेकर कलश में से नारकी की अंजलि में उड़ेलते हैं। उसे देखकर नारकीय जीवों के अंगोपांग सिहर उठते हैं,उनकी आँखें आंसुओं से भर आती हैं और वे कहते हैं'बस, हमारी प्यास बुझ गई।' इस तरह करुणापूर्ण वचन बोलते हुए वे एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर झांकते हए अरक्षित, अशरण, अनाथ, अबान्धव और स्वजनरहित होकर हिरणों की तरह भय से घबराए हुए तेजी से भागते हैं । उन भागते हुए नारकियों को कई निर्दय यमपुरुष हंसते हुए जबरन पकड़कर, लोहे के डंडों से उनका मुंह खोलकर कलकल उबलते हुए सीसे को उनके मुंह में उड़ेल देते हैं। उससे जले हुए वे नारकीय चिल्लाते हैं,कबूतरों की तरह भयंकर करुणापूर्ण बेसुरा रुदन करते हैं । इस प्रकार बड़बड़ाने, विलाप करने, दीनतापूर्वक गला फाड़कर रोने, अत्यन्त अरण्यरोदन करने, और सिसकियां भर कर रोने की आवाज से युक्त एवं थर्राते हुए या जोर-जोर से दुःख प्रगट करते हुए, रोके हुए और बंधे हुए नारकियों के द्वारा स्पष्ट निकले हुए शब्दों को सुनकर चिल्लाते,स्पष्ट धमकाते,कोप करते और जोर-जोर से शोर मचाते हए यमपालों की डांट पड़ती है .. “पकड़ लो इसे, इस पर पैर रखकर लांघ जाओ, इसे पीटो, छेद डालो, इसके टुकड़े-टुकड़े कर डालो, इसे उखाड़ डालो, इसकी आँख वगैरह निकाल लो, कैंची से इसके नाक, कान काट डालो, इसे अच्छी तरह नोच डालो. भून डालो या इसे फिर मारो, खूब मारो, इधरउधर फेंक दो, ऊपर उछाल दो, सामने से खींचो, उलटा खींचो; अब क्यों नहीं बोलता है ? अरे पापी ! अपने किये हुए दुष्कर्मों-पाप कर्मों को याद कर।" इस प्रकार यमपूरुषों द्वारा बोलने से फैला हआ शोर, और उसकी प्रतिध्वनि के गूजने से व्याप्त नरकवासियों को सदा त्रास पहुँचाने वाला तथा विविध प्रकार की यातनाओं से पीड़ित होते हुए नारकों का जलते हुए महानगर के घोष के समान अनिष्ट–अप्रिय महाघोष (हल्ला गुल्ला) वहाँ (नरक में) सुनाई देता है । वे यातनाएं कौन-कौन सी हैं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं- तलवार की धार के समान तीखे पत्तों के वन में, कुश के वन में, घरट्ट आदि पत्थरों पर, ऊपर मुख की हुई सूइयों वाले भूतल पर, खारे रसों
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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