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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र अंग-अंग सूज जाता है, ऐसी स्थिति में बेचारे नारकीय जीव (महीतले) पृथ्वीतलजमीन पर, (विलोलंति) लोटते फिरते हैं। (य) और (तत्थ) वहाँ (णिच्चकालं) हर समय (अणसिह) बिना खाए हुए भूखे ही रहने वाले, (घोरा) भयंकर, (रसमाणभीमरूवे) आवाजें करते हुए, डरावने रूप वाले वे, (विग-सुणग-सियाल-काक-मज्जार-सरभ-दीविय-वियग्घ-सद्दलसोह-दप्पिय खुहाभिभूतेहि) अत्यन्त भूख से सताए हुए मतवाले भेड़िये, शिकारी कुत्ते, सियार, कौए, बिलाव, अष्टापद, चीते, बाघ, केसरी सिंह और सिंह, (अक्कमित्ता) उन पर हमला करके (दढदाढा-गाढडक्क-कड्ढियसुतिक्खणह-फालियउद्धदेहा) अपनी मजबूत दाढ़ों से नारकों के शरीर के ऊपरी हिस्से को जोर से काटते हैं, फिर उन्हें खींचते हैं तथा अत्यन्त तीखे नखों से उसे फाड़ देते हैं, फिर उन्हें (समंतओ) चारों ओर, (विच्छिपते) फेंक देते हैं, (विमुक्कसंधिबंधणा) जिससे उनके शरीर के जोड़ और बंधन ढीले हो जाते हैं, (वियंगमंगा) अंग-अंग विकृत या पृथक् कर दिये जाते हैं (य) और (पुणो) फिर (खरथिरवढणक्खलोहतुडेहि) तीखी और मजबूत डाढ, नख और लोहे के समान नुकीली चोंच वाले, (कंक-कुरर-गिद्ध-घोरकट्ठ-वायसगणेहि) कंक, कुरर (क्रौंच), गिद्ध, अत्यन्त कष्ट देने वाले जंगली कोओं के झुंड के झुंड, (ओवतित्ता) उन पर टूट पड़ते हैं (पक्खाहयतिक्खणक्खविकिन्नजिन्भंछियनयानद्द (ब) ओलुग्गविगतवयणा) वे उन नारकों को अपने पंखों से ताड़ित करते हैं, तीखे नखों से जीभ खींच लेते हैं, उनकी आँखें निकाल लेते हैं तथा निर्दयतापूर्वक उन्हें अस्वस्थ करके उनका चेहरा बिगाड़ देते हैं, जिसके कारण वे (उक्कोसंता) जोर-जोर से रोते-चिल्लाते हैं, कोसते हैं, (उप्पयंता) उछलते हैं, (निपतंता) नीचे गिरते हैं, (य) और (भमंता) इधर से उधर घूमते हैं । मूलार्थ-पूर्वजन्मों में उपार्जित कर्मों के संचय से संतप्त महाग्नि के समान नरक की प्रचंड आग में अत्यन्त जलते हुए वे पापकर्मकरने वाले नरक के जीव उत्कट दुःखरूप, महाभयंकर, कठोर एवं असाता वेदनीयकर्म के उदय से जनित शारीरिक एवं मानसिक दो प्रकार की तीव्र वेदना भोगते हैं। तथा वे नारकीय जीव बहुत लम्बी पल्योपम एवं सागरोपम काल तक की बांधी हुई अपनी आयु दीनतापूर्वक बिताते हैं। इस लम्बी अवधि तक वे दक्षिण दिक्पाल देव के आश्रित अम्ब आदि यमकायिक असुरों द्वारा सताए जाते हुए भयभीत होकर आर्तनाद करते हैं। वह आर्तनाद किस प्रकार का होता है ? ऐसा पूछने पर शास्त्रकार कहते हैं- "हे प्रतापी पुरुष ! हे स्वामिन् ! हे भाई ! ओ पिता ! अय तात ! हे जयशील ! मुझे छोड़ दो, मैं दुर्बल और व्याधियों से पीड़ित हूँ, मर रहा हूँ ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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