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________________ ६० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ( अत्ताणा ) रक्षाहीन, ( असरणा) शरणहीन, (अणाहा ) अनाथ, (अबांधवा) बान्धवों से रहित, ( बंधुविप्पहीणा) स्वजनों से रहित ( भउब्बिग्गा ) भय से घबराये हुए, (मिगा sa) हिरणों की तरह, (वेगेण ) जोर से ( विपलायंति) भागने लगते हैं । तब ( णिरणुकंपा) निर्दयी (संता) हंसते हुए (केड) कई (जम काइया) यमपुरुष (बला) जबर्दस्ती उन्हें (घेत्तण) पकड़ कर ( पलायमाणाणं) भागते हुए नारकियों के ( मुह) मुंह को, ( लोहडंडेहि ) लोहे के डंडों से, (विहाडेत्त) खोलकर ( कलकलं) उबलते हुए सीसे को ( वयसि ) उनके मुंह में (छुभंति) उंड़ेल देते हैं । ( तेण ) उससे ( दढा संतो ) जले हुए वे (रसंति) चिल्लाते हैं (य) और ( पारेवयगा व ) कबूतरों की तरह ( भीमाई ) भयंकर, ( विस्सराई ) बुरे स्वर से ( कलुणगाइ) दीनता- पूर्वक (रुवंति ) रोते हैं, ( एवं ) इस प्रकार, ( पलवितविलाव कलु णाकं दियबहुरुन्नरुदियो) प्रलाप, विलाप (आर्तनाद ) दीनतापूर्वक गला फाड़ कर रोने, बहुत देर तक अरण्यरोदन एवं सिसकियां भरकर रोने की आवाज से युक्त, (परिवेपित-देविय रुद्ध-बद्धय नारकारवसंकुलो) कांपते हुए या जोर-जोर से दुःख प्रकट करते हुए, रोके हुए, और बंधे हुए नारकों द्वारा मचाए हुए शोर से व्याप्त, और जोर-जोर से इस प्रकार चिल्लाते हुए नारकीय जीव को, ( रसिय- भणिय-कुपिय उक्कइय-निरयपालतज्जियं) चिल्लाते हुए, स्पष्ट धमकाते हुए, कोप करते हुए, जोर-जोर से शोर मचाते हुए नरकपालों की डांट पड़ती है - ( गेण्ह क्कम पहर छिंद भिंद उप्पाडेहुक्खणाहि कत्ताहि वित्ताहि भुज्जो (भुज) हण - विहण विच्छुभोच्छुभ आकड्ढ विकड्ढ ) इसे पकड़ो, इस पर पैर रख कर चले जाओ, इसे पीटो, छेदन करो, इसके टुकड़े-टुकड़े कर डालो, उखाड़ डालो, इसकी आँखें वगैरह निकाल लो, केंची से इसके नाक-कान काट लो, विशेष प्रकार से कतर डालो और फिर ( अथवा इसे भून डालो) इसे मारो, जोर से मारो, इधर-उधर फेंक दो, ऊपर उछाल दो, सामने से खींचो, उलटा खींचो, ( किं ण जंपसि ) अब क्यों नहीं बोलता है ? (पाप) 'अरे पापी ! ( दुक्कयाई कम्माई सराहि) अपने दुष्कृत-पाप-कर्मों को याद कर', ( एवं ) इस प्रकार ( वयणम हप्पगन्भो ) यमपुरुषों के बोलने से फैला हुआ शोर (पडिसुय सद्दसंकुलो) और उसकी प्रतिध्वनि के गूँजने से व्याप्त (सया) सदा, (नरयगोयराण ) नरक निवासियों को ( तासओ) त्रास पहुँचाने वाला, (जायणाहि ) यातनाओं- पीड़ाओं से, ( जाइज्जताणं) यंत्रणा (पीड़ा ) पाते हुए (नेरइयाणं) नारक - जीवों का, (महाणगरडज्झमाणसरिसो) जलते हुए महानगर के शोर के समान, (अणिट्ठी) अनिष्ट- अप्रिय, (निग्घोषो) महाघोष - हल्ला-गुल्ला (तहियं तहि ) वहाँ नरक में (सुच्चए ) सुनाई देता है । (ते) वे यातनाएँ, (कि) - कौन-सी हैं ? (असिवण-दब्भवण- जंतपत्थर- सूइतलक्खा रवावि-कलकलंतवेयरणिकलंबबालुया - जलिय-गुहनिरु भणं) तलवार की धार के समान तीखे पत्तों के वन में, दर्भ-कुश के वन में, घरट्ट आदि पत्थरों पर ऊपर मुंह की हुई सुइयों के समान भूतल पर, खारे रसों से भरी हुई बावड़ियों में, उबलते हुए सीसे से भरी हुई वैतरणी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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