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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
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विमुक्तसंधिबन्धना व्यङ्गिताङ्गाः कंक-कुरर-गृद्ध-घोरकष्टवायसगणैश्च पुनः खरस्थिरदृढनखलोहतुण्डैररवपत्य पक्षाहततीक्ष्ण-नखविकीर्ण-जिह्वाच्छित्त (ञ्छित) नयन निर्दयावरुग्णविगतवदना उत्क्रोशन्तश्चोत्पतन्तो निपतन्तो भ्रमन्तः।
पदार्थान्वय—(पुव्वकम्मकयसंचओवतत्ता) पूर्वभव में किये हुए कर्मों के संचय से संतप्त (निरयग्गिमहग्गि संपलित्ता) महाग्नि के समान नरक की आग से अत्यन्त जलते हुए वे (पावकम्मकारी) पाप कर्म करने वाले नरक के जीव, (गाढ दुक्खं) उत्कट दुःखरूप, (महब्भयं) अत्यन्त भयानक, (कक्कसं) कठोर (असायं) असातावेदनीयकर्म के उदय से जनित, (शारीरं) शरीरसम्बन्धी, (च) और (माणसं) मनसम्बन्धी, (दुविह) दो प्रकार की, (तिव्वं) तीव्र, (वेयणं) वेदना को (वेदेति) भोगते हैं। तथा (ते) वे नारकीय जीव (बहूणि) बहुत लम्बी, (पलिओवमसागरोवमाणि) पल्योपम एवं सागरोपमकाल प्रमाण, (अहाउयं) बांधी हुई आयु को, (कलुणं) दीनता से, (पालेति) पार करते हैं--बिताते हैं ; (य) और, (यमकातियतासिता) यमकायिक दक्षिणदिक्पालदेवनिकाय के आश्रित अम्ब आदि असुरों द्वारा सताये गए वे (भीया) भयभीत होकर (सह) आर्तनाद, (करेंति) करते हैं। (ते) वह आर्तनाद (किं) किस तरह का होता है ? (अविभाय) हे प्रतापी ! (सामि) हे स्वामिन् ! (भाय) हे भाई, (बप्प) हे बाप ! (ताय) ओ तात ! (जितवं) हे विजयी ! (मुय मे, मरामि) मुझे छोड़ दो, मैं मर गया ! (दाणि) इस समय (अहं) मैं, (किं) कितना, (दुव्बलो) दुर्बल तथा (वाहिपीलिओ) रोग से पीड़ित (असि) हैं। (एवं) इस प्रकार, (दारुणो) कठोरचित्त (य) और (निद्दओ) निर्दय होकर (मा दे हि मे पहारे) मुझ पर चोटें प्रहार मत दो ! (मे) मुझे (मुहुत्तयं) एक मुहूर्त तक, उस्सासेत) श्वास लेने दो; (पसायं) कृपा (करेह) करो, (मा रुस) मुज पर गुस्सा मत करो, (वीसमामि) जरा विश्राम लेता हूँ, (मे) मेरी (गेवेज्ज) गर्दन को, (मुयह) छोड़ दो, (अहं) मैं, (गाढं तण्हाइयो) अत्यन्त प्यास से पीड़ित हूँ, (मे) मुझे (पानीयं) पानी (देह) दो" नारकीय जीवों के ऐसा कहने पर यमपुरुष कहते हैं—(हंता) लो नारक ! (इमं) इस (विमलं) स्वच्छ, (सीतलं) ठंडे (जल) पानी को (पिय) पी लो, (इति) ऐसा कहकर (नरयपाला) नरकपाल, (कलसेण) कलश में से (तवियं) तपे हुए (तउयं) सीसे को, (घेत्त ण) लेकर) (से) उसकी (अंजलीसु) हथेली पर (ति) उंडेलते हैं-देते हैं । (य) और (तं) उसे (दळूण) देखकर, (पवेवियंगोवंगा) नारकों के अंगोपांग सिहर उठते हैं, (अंसुपगलंतपप्पुयच्छा) बहते हुए आंसुओं से उनकी आँखें डबडबा आती हैं, और (अम्ह) 'बस हमारी, (तण्हा) प्यास, (छिण्णा) बुझ गई' (इय) इस प्रकार से (कलुणाणि) करुणापूर्ण दीनवचन (जंपमाणा) कहते हुए (दिसोदिसि) एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर, (विप्पेक्खंता) नजर दौड़ाते हुए,