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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
में तलवारों से लड़ाया जाता था, और इस खेल को देखने के लिए बड़े-बड़े अमीर उमराव व शासक आदि बैठते थे । जब तलवार से लहुलुहान होकर एक आदमी गिर जाता और मर जाता तो बड़े जोर से चिल्ला-चिल्ला कर खुशी मनाई जाती थी । यह बहुत भयंकर क्रूर प्रथा थी। इसी प्रकार भारतवर्ष में मुर्गों, सांडों, भैंसों आदि को आपस में लड़ाने का कई राजाओं, ठाकुरों और उमरावों को शौक था । अपनी क्षणिक तृप्ति और मनोविनोद के लिए इस प्रकार दूसरों के प्राणों को मौत के मुंह में धकेलना कितना बुरा और पापकर्म है । हिंसा के कार्यों को रसपूर्वक देखना और उनका अनुमोदन करना भी हिंसा के समान पाप है । अतः वे भी सावधान होकर हिंसा को प्रोत्साहन देते हैं तो इसी कोटि में आ जाते हैं ।
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हिंसादि पाप कार्यों का उपदेश देने वाले भी उस पापकर्म के करने वालों से अधिक पाप बंध कर लेते हैं । यज्ञ, पशुबलि या जानवर की कुर्बानी का उपदेश भी हजारों को पापकर्म में प्रवृत्त कर देता है। एक बार कोई दुष्कर्म किसी पापोपदेशक के उपदेश से प्रचलित हो जाता है तो वह लम्बे अर्से तक चलता रहता है। इसलिए पापमय परम्परा का उपदेशक भी इसी दूसरी कोटि के हिंसकों में आता है । परन्तु शायद ऐसे पाप-कर्मकारी व्यक्ति अपने बड़प्पन, धन, सत्ता और ऐश्वर्य के नशे में चूर होकर ऐसे निर्बल प्राणियों की आवाज नहीं सुनते हैं । यही कारण है कि शास्त्रकार ने उनकी मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हुए मूलपाठ में बताया है – “पावा पावाभिगमा पावरुई पाणवहकयरती पाणवहरूवाणुट्टाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुट्ठा. पाव करेत्तु होंति बहुप्पगारं ।" अर्थात् - " वे पापिष्ठजन पापकर्म को ही उपादेय समझते हैं, पापकर्म में ही रुचि रखते हैं, प्राणिवध में ही उनकी प्रीति होती है, वे प्राणिवध रूप आचरण (शिकार, पशुयुद्ध, पशुबलि, प्राणिसंहार आदि) में रात-दिन मस्त रहते हैं, प्राणिवध ( शिकार, युद्ध या प्राणिसंहार) की कहानियाँ सुनने-पढ़ने में प्रसन्न रहते हैं, बहुत प्रकार से ऐसे प्राणिवध रूप पापकर्म करने में संतुष्ट रहते हैं ।" ऐसे बुद्धि के दिवालिये सचमुच दया के पात्र हैं। क्योंकि वे अपनी भारतीय अहिंसाप्रधान संस्कृति को भूलकर अनार्य संस्कृति को अपना बैठे हैं। यही कारण है, ऐसे शासनकर्त्ताओं का प्रभाव 'यथा राजा तथा प्रजा' की कहावत के अनुसार उनकी प्रजा पर भी पड़ा। जहाँ-जहाँ शासकों ने इस प्रकार के क्रूरकर्म किये वहाँ-वहाँ की जनता भी वैसी ही क्रूर, बर्बर, अत्याचारी, पाशविक और लूटमार करने वाली बन गई, खून का बदला खून से लेने की परम्परा उनमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चल पड़ी, मांसभक्षण करने और किसी निर्दोष प्राणी को मारने में उन्हें कोई हिचक न रही ।
तीस कोटि के निकृष्ट वे लोग हैं, जो केवल अपनी जिह्वा के स्वाद के लिए निर्दोष प्राणियों का वध करते हैं, कराते हैं, या करने में निमित्त बनते हैं । उनका