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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
उस हिंसा रूप पाप के फल को नहीं जानते हुए ये अत्यन्त भयावनी, निरन्तर वेदना वाली, दीर्घकाल तक दारुण दुःखों से भरी हुई नरकयोनि और तिर्यञ्चयोनि को बढ़ाते हैं ।
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वहाँ से आयुष्य पूर्ण हो जाने पर च्युत ही (मर) कर वे अत्यन्त अशुभ कर्मों वाले जीव शीघ्र ही उन नरकों में उत्पन्न होते हैं, जहाँ का क्षेत्र बहुत बड़ा है और आयु सागरों की लम्बी है, जिन नरकागार रूपी कारागारों (चारकों) में वे रहते हैं, उनकी दीवारें वज्रमयी हैं, वे बड़े लम्बे-चौड़े हैं, द्वार रहित हैं, वहाँ का भूमितल अत्यन्त सख्त है और उसका स्पर्श' अत्यन्त खुरदरा है, वह बहुत ही ऊबड़ खाबड़ है, वे नरकावास बड़े ही उष्ण और सदा अत्यन्त तपे हुए रहते हैं, वे महादुर्गन्ध से सड़े रहते हैं और उद्व ेगजनक (ऊबा देने वाले) हैं । वे देखने में अत्यन्त बीभत्स हैं, वे बर्फ के ढेर के समान सदा ठंडे और काली प्रभा वाले हैं । अत्यन्त भयंकर और गहरे होने से उन्हें देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वे दिखने में अत्यन्त खराब (कुरूप ) हैं, जहाँ लोग असाध्य कुष्ट आदि व्याधियों और शूल आदि बीमारियों व ज्वर, जरा आदि से पीड़ित रहते हैं, वे सदा गाढ़ अन्धकार समूह से घिरे रहते हैं, जहाँ प्रत्येक प्राणी या वस्तु से भय बना रहता है, जहाँ सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे नहीं हैं, जहाँ गाढ़ा चिपचिपा सा दलदलरूप कीचड़ है, जो मेद, चर्बी, पीप, रुधिर और मांस के पिंडों से व्याप्त है, जिसके कारण वह बड़े घिनौने एवं चिकने शरीर के रसविशेष से बिगड़ा हुआ, बदबूदार और सड़ा हुआ है । जिन नरकागारों का स्पर्श' कंडे की आग, धधकती हुई ज्वाला, राख मिली हुई अग्नि, उछलती हुई चिनगारियों तथा तलवार, छुरे और करोत की तीखी धार एवं बिच्छू के डंक लगने के समान अत्यन्त दुःसह्य है, जहां रक्षा और शरण से रहित नारकीय जीवों को अत्यन्त दारुण दुःख के कारण संताप होता है, जहाँ लगातार एक के बाद एक वेदना होती रहती है, और जहाँ दक्षिण दिक्पाल यम के सेवक अम्बावरीष आदि जाति के असुरकुमार देव सदा घेरे रहते हैं ।
उक्त नरकों में उत्पन्न होने पर वे नारकीय जीव अन्तर्मुहूर्त में वैक्रियलब्धि और भव प्रत्यय के कारण देखने में अत्यन्त बुरे, डरावने, हड्डियों, नखों, नसों और रोमों से रहित, दुर्गन्धमय, अत्यन्त दुःसह्य हुंडक शरीर को धारण कर लेते हैं । शरीर ग्रहण कर लेने के बाद आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियों को पूर्णतया प्राप्त करके वे नारक जीव पांचों इन्द्रियों द्वारा अश ुभ, उज्ज्वल - तीव्र, बलशाली, प्रचुर, सारे शरीर में व्याप्त, उत्कट, तीक्ष्ण स्पर्श वाली, प्रचंड, घोर डरावनी दारुण वेदना से जन्य दुःखों का अनुभव करते हैं ।