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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव ७५ वाले, पक्षियों के बच्चों को मारने वाले, हिरनों को पकड़ने के लिए हिरनी को साथ लिए घूमने वाले, हिरनों को पालने वाले, सरोवर, झील या नद, बावड़ी, बड़ा तालाब ताल या तलैया में से शंख, सीप, मछलियाँ आदि प्राप्त करने के लिए इनका पानी निकाल कर जल का मर्दनकर, जल के स्रोत पाल या बांध आदि से बंद कर जलाशयों को सुखाने वाले, जीवों को मारने के लिए सामान्य विष या कालकूट विष या विषमिश्रित दवा आदि देने वाले, ताजी घास के स्थानों में निर्दयता पूर्वक आग लगा देने वाले, ऐसे नृशंस कर्म करने वाले लोग और बहुत से म्लेच्छजाति के लोग हिंसक होते हैं । म्लेच्छजाति के लोग कौन-कौन होते हैं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं- शक, यवन, शबर, बर्बर, काय मुरुड, उद, भडक, तित्तिक, पक्वणिक, कुलाक्ष, गौड़, सिंहल, पारस, क्रौंच, आन्ध्र, द्राविड़, बिल्वल, पुलिन्द्र अरोष, डोंब, पोक्कण, गन्धहारक ( कंधारवासी), वहलीक, जल्ल, रोम, माष, कुश, मलय, चुञ्चुक, चूलिक, कोंकणक, मेद, पह्नव, मालव, आभाषिक, अणक्क, चीन, ल्हासिक, खस, खासिक, नेहर ( नेट्टर या निष्ठुर ) महाराष्ट्र, मौष्टिक, आरब, डोबिलिक, कुहण, कैकय, हूण, रोमक, रुरु, मरुक और चिलात नामक म्लेच्छदेश के निवासी - ये सब पापमय बुद्धि वाले म्लेच्छ जातीय मनुष्य हैं । तथा मगर, घड़ियाल आदि जलचर जीव, स्थलचर (चौपाये जानवर व मनुष्य), नखसहित पैर वाले सिंह आदि पशु, पेट से चलने वाले सर्पादि प्राणी, तथा आकाश में उड़ने वाले गिद्ध आदि खेचर पक्षी, इन सब जीवों का घात करके अपनी रोजी चलाते हैं । इनमें कई संज्ञी होते हैं, जिनका मन · दीर्घकाल से संज्ञाओं में परिणत होता है, कई इससे भिन्न असंज्ञी होते हैं ( अथवा जो मनसहित हैं, वे संज्ञी होते हैं, जो मनरहित हैं, वे असंज्ञी), लेकिन जब इनके शरीर और भाषा बनकर पूर्ण हो जाते हैं, पर्याप्त हो जाते हैं, तभी इनमें हिंसा करने की शक्ति होती है, अपर्याप्त अवस्था में नहीं; (अथवा कई पर्याप्तलल्धि सम्पन्न होकर हिंसा करते हैं और कई अपनी पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, वे अपर्याप्त होते हैं) तथा वे अशुभ 'लेश्याओं और अशुभ परिणामों वाले होते हैं, ये और इस प्रकार के और भी पापी जीव होते हैं, जो पाप को ही अपनाने ही रुचि रखते हैं, प्राणिवध करने-कराने में ही मस्त आचरण ही हिंसामय होते हैं, जो प्राणिवध की रसप्रद कथाओं में ही आनन्द मानते हैं । ये सब जीव प्राणवधरूप पाप अनेक प्रकार से करके संतुष्ट होते हैं । इस प्रकार ये प्राणवध की क्रियाएं करते रहते हैं । योग्य मानते हैं, पाप में रहते हैं, जिनके सब
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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