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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा - आश्रव होते हैं, ( वयरामय - कुड्ड - द - निस्संधि-वारविरहिय - निमद्दव भूमितल खरामरिस-रु विसमणि रयघरचारएस) जिन नरकगृह रूपी बंदीघरों - नारकीय जीवों के उत्पत्ति स्थानों की दीवारें वज्रमय हैं, विस्तीर्ण हैं, द्वाररहित हैं, जहाँ का भूमितल बड़ा ही कठोर है, उसका स्पर्श भी अत्यन्त खुरदरा है, तथा जो ऊबड़-खाबड़ हैं ( महोसिणसयापतत्त- दुग्गंध - विस्स उव्वेय- जण गेसु) जो नरकावास बड़े ही उष्ण (गर्म) हैं, सदा अत्यन्त तपे रहते हैं, भयंकर दुर्गन्ध से सड़े रहते हैं और उद्वेगजनक हैं ; ( बीभच्छदरिसणिज्जेसु) जो देखने में अत्यन्त बीभत्स (घृणाजनक) हैं, ( णिच्चं हिमपडलसीयले - सु) जो हमेशा बर्फ की चट्टान के समान ठंडे हैं; (कालोभासेसु) जो काली प्रभा वाले हैं (य) और ( भीमगंभीर लोमहरिसणिज्जेसु) भयंकर और गंभीर होने से रोमांच पैदा कर देने वाले हैं ( णिरभिरामेसु) जो अत्यन्त असुन्दर - कुरूप हैं; (निप्पडियारवाहिरोगजरापीलिएसु) जहाँ असाध्य कोढ़ आदि व्याधियों तथा शूल आदि रोगों एवं बुढ़ापे से लोग पीड़ित रहते हैं, (अतीव निच्चंधकार तिमिस्सेसु) जो नित्य गाढ़ अन्धकार - समूह से घिरे रहते हैं, (पतिभएसु) जहाँ प्रत्येक प्राणी या वस्तु से भय ही भय बना रहता है ; ( ववगयगह चंद सूर णक्खत्तजोइसेसु) जहाँ ग्रह, नक्षत्र, तारे, चन्द्रमा और सूर्य नहीं हैं, (मेय - वसा-मंसपडल-पोच्चडपूय- रुहिरुक्किण्ण-विलीण-चिक्कणरसियावावण कुहिय चिक्खलकद्दमेसु) जहाँ मेद, चर्बी, मांस के ढेर तथा अत्यन्त घने पीप और रक्त से सने हुए और फैले हुए चिकने घिनौने शरीर के रसविशेष से बिगड़ा हुआ और सड़ा हुआ गाढ़ा और मैला चिपचिप करता हुआ कीचड़ और दलदल है; ( कुकूलानलपलित्त जाल मुम्मुर असिवखुरकरवत्तधारासुनिसित बिच्छुयडंक निवातोवम्म फरिस अतिदुस्सहेसु) जिनका स्पर्श कंडे की आग, धधकती हुई ज्वाला, उड़ती हुई चिनगारियों तथा तलवार, छुरे, करौत की तीखी धार एवं तीखे बिच्छू के डंक लगने के समान अत्यन्त दुःसह है; ( अत्ताणासरण कडुय दुक्ख परितावणेसु) जहाँ रक्षा और शरण से रहित नारकीय जीवों को अत्यन्त कटु दुःख से संताप होता है; ( अब निरंतर वेयणेसु) जहाँ एक के बाद एक वेदना लगातार लगी ही रहती है, ( जमपुरिससंकुलेसु) जहाँ दक्षिण दिक्पाल के पुरुष - अम्बावरीष आदि असुरजातीय यमदेव घेरे रहते हैं । - * ७३ - (A) और ( तत्थ ) उन नरकों में उत्पन्न होने पर (अंतोमुहुत्तलद्धि भवपच्चएण) अन्तर्मुहूर्त्त में क्रियलब्धि और भवप्रत्यय से ( नरक में जन्म लेकर ) (ते) वे पापी नारकीय जीव ( बीभच्छ दरिसणिज्जं ) देखने में अत्यन्त घृणाजनक, (बीहणयं ) भयावना ( अट्ठि - हारुणह - रोमवज्जियं) हड्डी, नसों, नख और रोम से रहित, ( असुभगंधं दुक्खविस) दुर्गन्ध वाले और दुःख को सहने वाले; अथवा पाठान्तर ( असुभदुविसहं) अशुभ और दुःख सहने के योग्य, (हुंड) हुंडक संस्थान वाले, ( सरीरं ) शरीर को
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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