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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र श्वेत रंग के सेत, मेद (मेवाड़ या मेद देश के), (पण्हव-मालव-महुअर-आभासिय-अणक्क (क्ख)-चीण-ल्हासिय-खस-खासिया) पह्नव-(पश्तोभाषी पेशावरी), मालव देश के, मधुकर, आभाषिक, अनक्ष या अणक्क (छोटी नाक वाले), चीनी, ल्हासिक (ल्हासातिब्बत के निवासी), खस (ईरानी), खासिक (खासी जाति के लोग), (नेहर-निठुरमरहट्ट-मुट्ठिअ-आरब-डोबिलग-कुहण - केकय-हूण-रोमग-रुरु-मरुगा) नेहर (चेरापुंजी वासी) (निठुर-निष्ठुर), महाराष्ट्रीयन), मौष्टिक, आरब (अरब देश के), डोब्लिक, कुहण (कोहकाफ पर्वतीय अथवा फ्रांसवासी), केकय (हिरात), हूण (यूनानी), रोमक (रोमवासी), रुरु, मरुक (रेगिस्तानी (य) और (चिलाय विसयवासी) किरात या म्लेच्छ देश के निवासी (पावमतिणो) वे पापबुद्धि वाले लोग तथा (जलयर-थलयर-सणफतोरगखहचर-संडासतोंडजीवोवघायजीवी) जलचर, स्थलचर (चौपाये जानवर, मनुष्य आदि), नखसहित पैर वाले-सिंह आदि, पेट के बल चलने वाले सर्प आदि तथा खेचर (उड़ने वाले पक्षी आदि), और संडासी के समान मुख वाले पक्षी आदि, इन सब जीवों का घात करके अपनी जीविका करने वाले (सण्णी) जिनका मन दीर्घकाल से संज्ञाओं में परिणत है, इस प्रकार के संज्ञी (य) और (असण्णिणो) संज्ञी से भिन्न, (पज्जत्ता) पर्याप्ति वाले, (य) और (अपज्जत्ता) अपर्याप्तक (असुभलेस्स परिणामा) अशुभ लेश्याओं और अशुभ परिणामों वाले, (एते) ये (य) और (एवमादी) इसी प्रकार के, (अण्णे) दूसरे, (पापा) पापी, (पावाभिगमा) पाप को उपादेय मानने वाले, (पावमई) जिनकी बुद्धि पाप में ही रत है, (पावरुई) जिनकी रुचि पाप में ही है, (पाणवहकयरती) जिनकी प्राणिवध में ही प्रीति लगी हुई है, (पाणवहरूवाणुट्ठाणा) जिनके सब कार्य प्राणिवधरूप हैं, (पाणवहकहासु अभिरमंता) प्राणिवध (शिकार, कत्ल, हत्या, संहार आदि) की कथाओं-कहानियों में आनंद मानने वाले, (पावं) प्राणवधरूप पाप को, (करेत्तु) करके (बहुप्पगारं) अनेक तरह से, (तुट्ठा) संतुष्ट (होंति) होते हैं। [अथवा प्राणवधरूप पाप करते-कराते देखकर सुख मानते हुए बहुत प्रकार की जीववध की क्रियाओं के करने-कराने में खुश रहते हैं], (पाणाइवायकरणं) प्राणिवधरूप क्रिया, (करेंति) करते हैं। (य) और (तस्स) उस (पावस्स) पाप के (फलविवागं) फलविपाक को, (अयाणमाणा) नहीं जानते हुए (महब्भयं) अत्यन्त भयावनी, (अविस्सामवेयणं) निरंतर वेदना वाली, (दोहकालबहुदुक्खसंकडं), चिरकाल तक अनेक दुःखों से व्याप्त, (नरयतिरिक्ख जोणि) नरकयोनि तथा तिर्य चयोनि को, (वड्डेति) बढाते हैं। (इओ) यहाँ से, (आउक्खए) आयु के क्षय होने पर (चुया) च्युत होकर-मरकर, (असुभकम्मबहुला) अधिक अशुभ कर्मों वाले वे जीव (हुलितं) शीघ्र (महालएसु) अतिविस्तीर्ण क्षेत्रों वाले या अत्यन्त दीर्घ आयुष्य वाले, (नरएसु) नरकों में (उववज्जति) उत्पन्न
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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