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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
बढ़ा है । इसके बाद तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय में पांचों इन्द्रियाँ होने से जो संज्ञी (समनस्क) हैं, उनमें दसों ही प्राण होने से उनकी चेतना पहले के चारों कोटि के जीवों से अधिकतम विकसित होती है । जिसकी चेतना जितनी अधिक विकसित होती है, उसे सुख और दुःख का संवेदन उतना ही अधिक होता है, और निम्न कोटि के जीवों की अपेक्षा उनमें ज्ञान, समझ व अपने हिताहित को पहिचानने की बुद्धि अधिकतम होती है ।
जिन जीवों की चेतना जितनी अधिक विकसित होती है, उनकी हिंसा करने में हिंसाकर्ता में क्रूरता उतनी ही ज्यादा होती है, इसलिए उसकी हिंसा से पाप कर्म का बंध भी प्रबल होता है । कहने का मतलब यह है कि एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा द्वीन्द्रिय जीवों की हिंसा में पाप कर्म का बन्ध अधिक, त्रीन्द्रिय की हिंसा में उससे अधिक, और चतुरिन्द्रियजीवों की हिंसा में उससे भी अधिक पाप कर्म का बन्ध होता है; तथा पञ्चेन्द्रिय जीवों की हिंसा में अधिकतम पाप कर्म का बन्ध होता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता। हिंसा की तीव्रता - मन्दता जीवों की चेतना के तीव्र मन्द विकास पर और हिंसाकर्ता के परिणामों की तीव्रतामन्दता पर निर्भर है ।
प्राणिवध करने के प्रयोजनों या कारणों पर विचार - शास्त्रकार ने मूलपाठ में पंचेन्द्रिय से एकेन्द्रिय तक के जीवों की हिंसा के जिन-जिन प्रयोजनों पर प्रकाश डाला है, वे तो स्पष्ट हैं। खासतौर से पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा चमड़े, मांस आदि के लिए होती है, विकलेन्द्रिय जीवों की हिंसा शरीर, वस्त्र, घर आदि विविध वस्तुओं को सुशोभित करने या कई दवाइयाँ बनाने आदि के लिए की जाती है; और एकेन्द्रिय जीवों का हिंसा खान पान, शय्या, वस्त्र, जीवनोपयोगी विवध साधनों, मकानात बनाने एवं खेती, व्यापार आदि धंधों में या बाग बगीचे आदि के निमित्त से की है ।
हिंसा के प्रयोजनों या कारणों के बताने का उद्देश्य यही है कि मानव इन कारणों से जहाँ तक हो सके दूर रहे, इनसे बचने की कोशिश करे; कम से कम आव•.श्यकताओं से काम चलाए, अत्यन्त सात्त्विक और सादा जीवन बिताए; जीवननिर्वाह के साधनों में कटौती करे। क्योंकि जीवन में जितनी अधिक हिंसा बढ़ेगी, उतना ही उसके अपने लिए दुःख की परम्परा बढ़ेगी, आत्मा की उन्नति में उतने ही विघ्न बढ़ेंगे, भविष्य में हिंसा की उस अधिकता के फलस्वरूप विकास प्राप्त होने का मार्ग अवरुद्ध हो जायगा । सच कहें तो वह हिंसा उन जीवों की हिंसा नहीं, एक तरह से अपनी ही आत्महिंसा होगी । परन्तु मनुष्य की बुद्धि पर आज भौतिकवाद एवं स्वार्थ का पर्दा पड़ जाने के कारण वह अंधाधुंध प्रवृत्ति करता है, हिंसा-अहिंसा का कोई विचार नहीं करता, दूसरे प्राणियों की जिंदगियों का खयाल ही प्रायः नहीं करता, अपने सुख साधनों को जुटाने के लिए वह दूसरों के सुखों की परवाह नहीं करता । इस प्रकार की आपा