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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव कुछ वर्षों पहले बंगाल के वनस्पति विज्ञान के आचार्य जगदीशचन्द्र वसु ने बम्बई में प्रदर्शनी लगाकर वनस्पति में सुख और दुःख के संवेदन का होना प्रत्यक्ष सिद्ध कर बताया था। उन्होंने दर्शकों से कहा कि मैं इस वनस्पति को गाली देता हूं, फिर प्रशंसा करता हूं; देखना इसकी इस पर क्या प्रतिक्रिया होती है ? उन्होंने पहले गाली दी तो वह एकाएक मुरझा गई। फिर उसकी प्रशंसा की तो वह खिल उठी। यह वनस्पति में जीवन का प्रत्यक्ष सबूत है।
इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय त्रस प्राणियों में चेतना प्रत्यक्ष दिखाई देती है; वे बिना किसी की प्रेरणा के स्वतंत्र गति करते हैं, कष्ट देने पर तड़फते हैं, धूप से छाया में उठाकर रखो तो सुखी होते हैं; उनको छूने या उन पर प्रहार करने से वे एकदम छटपटा उठते हैं, दुःखी होते हैं। चाहे वे बोल न सकें या अपनी वेदना को व्यक्त न कर सकें; किन्तु उनकी चेष्टाओं से तो प्रत्यक्ष जाना जा सकता है। इसलिए इनके सजोव होने में तो कोई संदेह ही नहीं है। __इससे आगे अधिक विकसित चैतन्य वाले तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव हैं, जिनके भेद और नाम विस्तार से शास्त्रकार ने बताए ही हैं। उनकी चेतना तो प्रत्यक्ष देखी जा सकती है; उनमें से बहुत से तो अपनी अव्यक्त भाषा में अपने सुख-दुःख के संवेदन को व्यक्त भी करते हैं। पालतू पशु ही नहीं, क्रूर से क्रूर माने जाने वाले सिंह सर्प आदि जानवर भी उन्हें सुख पहुंचाने वाले उपकारी के प्रति कृतज्ञ होकर अपनी हिंसावृत्ति तक छोड़ देते हैं, मित्रवत् बन जाते हैं। जब उन्हें कोई मारता, पीटता, सताता या हैरान करता है तो वे बदला लेने या सामना करने को तैयार हो जाते हैं। यह सुख और दुःख के संवेदन की स्पष्ट प्रतिक्रिया उनमें देखी जा सकती है । तब क्या
यह कहने की कोई गुंजाइश रह जाती है कि इन पूर्वोक्त विविध तिर्यञ्च पचेन्द्रिय . जीवों में चैतन्य या जीवनशक्ति नहीं है ?
चेतना के विकास का तारतम्य-एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सब जीवों में चेतना विद्यमान होने पर भी उसके विकास में उत्तरोत्तर न्यूनाधिकता पाई जाती है; विकास की न्यूनाधिकता का कारण उनमें प्राण और इन्द्रियों की न्यूनाधिकता है। जैसे एकेन्द्रिय में सिर्फ एक स्पर्शनेन्द्रिय ही है, इसलिए प्राण भी शरीर, स्पर्शनेन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य ये ४ ही हैं । द्रव्यमन न होने के कारण उन जीवों में चेतना अव्यक्त, सुषुप्त या मूच्छित रहती है। अत्यन्त अविकसित चेतना है। उससे बढ़कर चेतना का विकास द्वीन्द्रिय में होता है, उसमें स्पर्शनेन्द्रिय और जिह्नन्द्रिय होने से रसनेन्द्रिय और वचन ये दो प्राण बढ़ गए । एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय जीवों में थोड़ी-सी ज्यादा विकसित चेतना है। त्रीन्द्रिय जीवों में स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय
और घ्राणेन्द्रिय बल प्राण अधिक होने से तथा चतुरिन्द्रिय में पहले की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण अधिक होने से उत्तरोत्तर चेतना का विकास