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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव ६१ में अनन्त जीव रहते हैं या एक शरीर के अनन्त जीव स्वामी हैं, एक ही साथ जन्म लेते हैं, एक ही साथ मरते हैं, एक ही साथ श्वासोच्छ्वास लेते हैं, उन्हें साधारण वनस्पतिकाय कहते हैं । जैसे—जमीकंद, आलू, रतालु आदि । इसके अलावा पृथ्वीकाय आदि जीवों के आश्रित बहुत से जीव रहते हैं, वे त्रस कहलाते हैं । उनमें कई तो आँखों से दिखाई देते हैं, कई नहीं दिखाई देते । माईक्रॉसकोप आदि यंत्रों या खुर्दवीनों से देखने पर वे चलते फिरते नजर आते हैं । जैसे जल के आश्रित फुआरे आदि, हवा के कीटाणु मिट्टी के आश्रित कीट, वनस्पति के आश्रित कीटाणु आदि । वह उनकी जीवों के भेद और नाम बताने का प्रयोजन —- कई लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि यहाँ हिंसा के प्रकरण में जीवों के भेद और नाम बताने की क्या आवश्यकता थी ? इसके उत्तर में ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि जब तक कोई व्यक्ति जीवों का स्वरूप, उनके भेद और नाम, तथा उनके रहने के स्थान नहीं जान लेगा, तब तक हिंसा से कैसे विरत होगा ? हिंसा और अहिंसा तो प्राणियों को लेकर ही होती है ! जिसे इस संसार के 'चेतनाशील जीवों का पता नहीं, वह अपने जीवन की तरह दूसरों के अस्तित्व या जीवन को बचाने का प्रयत्न भी कैसे करेगा ? जब वह जान जायगा कि इन प्राणियों में भी मेरी ही तरह की-सी चेतना है, तभी वह इनकी हिंसा करने से रुकेगा । दूसरी बात यह है कि जीव अजीव के विवेक से रहित मूढ़ लोग किन-किन जीवों की कैसे-कैसे और किस-किस प्रयोजन से हिंसा कर बैठते हैं, यह बताने के लिए यहाँ जीवों के स्वरूप, भेद और नाम बताना शास्त्रकार को अभीष्ट है । तीसरी बात यह है कि कई प्राचीन मतवादी गाय आदि में आत्मा नहीं मानते थे, वे कहते थे--Cow has no soul. (गाय में आत्मा नहीं होती । ), इसी प्रकार आज भी बंगाल आदि प्रान्तों में मछली को जलतरोई मानकर उसके खाने से कोई परहेज नहीं करते; चीनी लोग तो कई जलजन्तुओं को कच्चे ही चबा जाते हैं तथा जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ अन्य धर्म सम्प्रदाय के बहुत से लोग मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि, वनस्पति आदि में चेतना या जीवन नहीं मानते, उन्हें स्पष्ट रूप से बताने के लिए भी स की तरह स्थावर जीवों का वर्णन करना आवश्यक था । जीव का लक्षण और उनमें चेतना का प्रमाण – 'उवओगलक्खणो जीवो'जिसमें उपयोग हो यानी ज्ञान और दर्शन का उपयोग हो, जानने और विशेष प्रकार से देखने – चिन्तनपूर्वक जानने की शक्ति हो, जिसे सुख और दुःख का संवेदन होता हो उसे जीव कहते हैं । प्रत्येक जीव में चाहे वह सूक्ष्म से सूक्ष्म निगोद का ही जीव क्यों न हो, चेतना विद्यमान रहती है । उसी चेतना के कारण उसमें प्राण टिकते हैं, शरीर के अंगोपांग, इन्द्रियाँ और मन काम करते हैं । यह बात दूसरी है कि किसी जीव में चेतना अव्यक्त व सुषुप्त होती है, किसी में कुछ कम जागृत होती है, किसी में विशेष जागृत होती है । यह तो चेतना के अल्प विकास और अधिक विकास का अन्तर है ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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