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२९४ | जैन तत्त्वकलिका : नवम कलिका है। किसी मकान के चार फोटो यदि उसकी चारों दिशाओं से लिये जाएँगे तो वे सब एक. जैसे नहीं होंगे। फिर भी वे एक ही मकान के होने से एक ही मकान के कहलाएंगे। इसी प्रकार वस्तु भी अनेक दृष्टियों से देखने पर अनेक प्रकार की मालूम होती है। यही कारण है कि वाक्यप्रयोग भी नाना प्रकार के बनते हैं।
किसी भी प्रश्न का उत्तर देते समय इन सात भंगों में से किसी न किसी एक भंग का उपयोग करना आवश्यक है । इसे सुगमता से समझने के एक व्यवहारिक उदाहरण लीजिए
किसी मरणासन्न रोगी के बारे में वैद्य से पूछा जाए कि रोगी की हालत कैसी है ? तो वह इन सातों उत्तरों में से कोई एक उत्तर देगा
(१) अच्छी हालत है (अस्ति)। (२) अच्छी हालत नहीं है (नास्ति)।
(३) कल से तो अच्छी है (अस्ति), पर ऐसी अच्छी नहीं है कि आशा रखी जा सके (नास्ति)। (अस्तिनास्ति)
(४) अच्छी या बुरी, कुछ नहीं कहा जा सकता। (अवक्तव्य).
(५) कल से तो अच्छी है, (अस्ति), फिर भी कुछ कहा नहीं जा सकता कि क्या होगा ? (अवक्तव्य), (अस्ति-अवक्तव्य)।
(६) कल से तो अच्छी नहीं है, (नास्ति), फिर भी कहा नहीं जा सकता है कि क्या होगा ? (अवक्तव्य); (नास्ति-अवक्तव्य)
(७) वैसे तो अच्छी नहीं है, (नास्ति), परन्तु कल की अपेक्षा तो अच्छी है, (अस्ति); फिर भी कहा नहीं जा सकता कि क्या होगा ? (अवक्तव्य); (अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य)।
इस सामान्य व्यावहारिक उदाहरण पर से सत्तभंगी का महत्व स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है। इसी तरह सामाजिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, सभी क्षेत्रों में सप्तभंगी का प्रयोग किया जाता है और इसके प्रयोग से पारस्परिक विरोध शमन किया जा सकता है ।
इस प्रकार प्रमाणवाद, नयवाद, निक्षेपवाद और अनेकान्तवाद आदि जैनदर्शन के मेरुदण्ड हैं, जिनके द्वारा जिनप्रणीत तत्त्वों एवं आगम-वाणी को विभिन्न अपेक्षाओं से जाना-परखा जा सकता है, हृदयंगम किया जा सकता है, अहिंसा-सत्यधर्म का सर्वांगीण आचरण हो सकता है और तभी श्रुतधर्म की सर्वांगीण आराधना हो सकती है।