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________________ प्रमाण -नय-स्वरूप | २६१ सकता है, परन्तु कथन नहीं कर सकता और जब उन धर्मों का कथन नहीं करता है तो उसका सत्य एकांगी बन जाता है । अतः स्याद्वाद कहें या अनेकान्तवाद; वही इस समस्या को हल करता है । वस्तु के अनेक गुणधर्मों में से किसी एक अन्त या छोर - पहलू अथवा गुणधर्म को देखकर उसके समस्त स्वरूप के विषय में कि 'यह वस्तु इसी प्रकार की है; ' ऐसी मान्यता बना लेना एकान्तवाद है । जिसमें वस्तु के अनेक अन्त, छोर या पहलू या गुण-धर्मों का अवलोकन करके उसके सम्बन्ध अभिप्राय बनाया जाए, अर्थात् परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों को विभिन्न अपेक्षाओं से स्वीकार करना अनेकान्तवाद या स्याद्वाद है । जैसे - एक मनुष्य अपने पुत्र का पिता है, साथ ही वह अपने पिता का पुत्र भी है, अपने मामा की अपेक्षा से वह भानजा भी है और अपने भानजे की अपेक्षा से वह मामा भी है । इस प्रकार एक व्यक्ति में पितृत्व, पुत्रत्व, भागिनेयत्व और मातुलत्व ये परस्पर विरोधी धर्म सापेक्ष दृष्टि के कारण ( भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से ) सम्भव हैं । सापेक्षता का अर्थ हैपरस्पराधार, यानी एक के आधार पर दूसरे का होना । छोटा और बड़ा, हलका और भारी, ऊँचा और नीचा, नित्य और अनित्य, एक और अनेक - ये सभी परस्पर सापेक्ष शब्द हैं । जैनागमों में अनेकान्तवाद के उदाहरण जैनागमों में यत्र-तत्र स्याद्वाद के उत्तम उदाहरण' मिलते हैं । भगवान् ने गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा 'गौतम ! जीव स्यात् ( कथंचित्) शाश्वत है, स्यात् ( किसी अपेक्षा से) अशाश्वत ।' द्रव्यार्थिक दृष्टि से शाश्वत और पर्यायार्थिक दृष्टि से अशाश्वत है । • जयन्ती श्राविका के भगवान् महावीर से प्रश्नोत्तर देखिये - जयन्ती - भगवन् ! सोना अच्छा या जागना अच्छा ? भगवान् - जयन्ति ! कई जीवों का सोना अच्छा, कई जीवों का जागना अच्छा ! जयन्ति - भगवन् ! ऐसा कैसे ? १. ( क ) भगवतीसूत्र -२०४६ (ख) भगवती सूत्र श० १२. उ०२, सू० ४४३
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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