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२६० | जैन तत्त्वकलिका : नवम कलिका
जिस शरीर में रहकर आत्मा भविष्य में जानने वाला है, वह भव्यशरीर है । एक बालक की देह देखकर कहना यह आत्मा बहुत जानेगा, यह भव्यशरीर- नोआगम- द्रव्यनिक्षेप है ।
प्रथम दो भेदों में शरीर को ग्रहण किया। तीसरे पद में शरीर नहीं, शारीरिक क्रिया ग्रहण की जाती है, उसे 'तद्व्यतिरिक्त' कहते हैं । किसी निकी धर्मोपदेश के समय की हस्तादि चेष्टाओं को याद करके कहना कि "यह भी एक आत्मा था।' इसे तद्व्यतिरिक्त-नो आगम-द्रढ निक्षेप का प्रयोग कहा जाता है ।
(४) भावनिक्षेप - - वर्तमान पर्याय के अनुसार शब्दप्रयोग भावनिक्षेप है । जैसे- अध्यापन करने वाले को अध्यापक, राज्य करने वाले को राजा और सेवा करने वाले को सेवक कहना आदि ।
इन निक्षेपों के कई उत्तरभेद भी हैं। विस्तार भय से यहाँ नहीं लिखे जा रहे हैं ।
अनेकान्तवाद - स्यादवाद
जैनदर्शन के चिन्तन की शैली का नाम अनेकान्त और प्रतिपादन की शैली का नाम स्यादवाद है । जैनदर्शन को या जैनागमों में उक्त जिनवाणी को समझने की यह कुञ्जी है। इसके बिना जगत् का कोई भी व्यवहार नहीं हो सकता । "
जानना ज्ञान का काम है, बोलना वाणी का ज्ञान की शक्ति अपरिमित है, वाणी की परिमित । ज्ञ ेय अनन्त हैं, ज्ञान भी अनन्त है; किन्तु वाणी अनन्त नहीं है । इसलिए नहीं है कि एक क्षण में अनन्तज्ञान अनन्त ज्ञ ेयों को जान तो सकता है, किन्तु वाणी द्वारा उसे व्यक्त नहीं कर सकता । एक शब्द एक क्षण में एक सत्य को बता सकता है । इस दृष्टि से वस्तु के दो रूप होते हैं - (१) अवाच्य (अनभिलाप्य) और (२) वाच्य ( अभिलाप्य) | अनभिलाप्य का अनन्तवाँ भाग अभिलाप्य होता है और अभिलाप्य का अनन्तवाँ भाग वाणी का विषय बनता है ।
प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं - विरुद्ध भी, अविरुद्ध भी । किन्तु सत्यार्थी मुमुक्षु किसी वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते समय समस्त धर्मों का कथन नहीं कर सकता । छद्मस्थ व्यक्ति कुछ धर्मों को जान
१. जेण विणा लोगस्स वि ववहारो संव्वहा न निव्वडइ । गुरु णमो अणेगंतवायस्स ||
तस्स
- सन्मतितर्क ३६८