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२८८ | जैन तत्त्वकलिका : नवम कलिका जाता है । इसलिए किसी भी शब्द का प्रस्तुत अर्थ क्या है ? इस जिज्ञासा या समस्या का समाधान पाने या पूर्ण करने का कार्य निक्षेप पद्धति करती है । शब्द का प्रस्तुत अर्थ जानने से अज्ञान, संशय, विपर्यय आदि दूर होकर वस्तु का या वस्तुस्थिति का स्वरूप समझने में सहायता मिलती है । अतः अप्रस्तुत अर्थ को दूर करके प्रस्तुत अर्थ का सम्यक्बोध कराना इसका फल है । निक्षेपपूर्वक अर्थ का निरूपण करने से उसमें अर्थ की स्पष्टता आती है।
निक्षेप का अर्थ है-शब्द में अर्थ का आरोपण करना, प्रस्तुत अर्थ को रखना, अथवा शब्द के अर्थसामान्य का नामादि भेदों से निरूपण करना। निक्षेप के प्रकार
शब्द के जितने अर्थ होते हों उन्हें शब्द का अर्थसामान्य कहते हैं। दूसरे शब्दों में, वस्तुविन्यास के जितने क्रम हैं. उतने ही निक्षेप हैं । प्रत्येक शब्द के कम से कम चार विभाग या चार क्रम तो अवश्य होते हैं-(१) नाम, (२) स्थापना, (३) द्रव्य और (४) भाव ।
(१) नामनिक्षेप-किसो व्यक्ति या वस्तु का स्वेच्छा से नाम रखना नामनिक्षेप कहलाता है। वस्तुतः सिर्फ लोकव्यवहार चलाने के लिए गुण, जाति, द्रव्य आदि किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा रखे बिना किसी वस्तु या व्यक्ति की कोई संज्ञा रखना नामनिक्षेप है। जैसे-एक सामान्य व्यक्ति का नाम 'इन्द्र' रख दिया जाए, किन्तु परमेश्वयसम्पन्न इन्द्र (देवराज) से उसका कोई वास्ता नहीं है। केवल व्यवहार चलाने के लिए ‘इन्द्र' नाम रख दिया जाता है।
इस निक्षेप की एक विशेषता यह है कि मूल वस्तु के पर्यायवाचक शब्द से उसका कथन नहीं हो सकता। अर्थात्-इन्द्र नाम रखा हो, उसे शक पुरन्दर, हरि, पाकशासन आदि शब्दों से सम्बोधित नहीं किया सकता।
नामकरण दो प्रकार का होता है-सार्थक और निरर्थक । आशाधर, लक्ष्मी आदि नाम सार्थक और डित्थ, डवित्थ, पिंकी, पिंटू आदि निरर्थक नाम हैं।
(२) स्थापनानिक्षेप-जो अर्थ तद्प नहीं है, उसे तद्रूप मान लेना, स्थापनानिक्षेप है । स्थापना दो प्रकार की होती है—(१) सद्भाव (तदाकार) स्थापना और (२) असद्भाव (अतदाकार) स्थापना।
एक व्यक्ति अपने गुरु के चित्र को गुरु मानता है, यह सद्भाव स्थापना