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२८० | जैन तत्त्वकलिका : नवम कलिका परार्थानुमान के अवयव
जैन दार्शनिक तीब्र बुद्धि पुरुष को समझाने के लिए पक्ष (प्रतिज्ञा) और हेतू, दो अवयवों हो ही पर्याप्त समझते हैं, परन्तु मन्द बुद्धि को समझाने के लिए पांच अवयवों तक का प्रयोग स्वीकार करते हैं। वे इस प्रकार हैं
(i) प्रतिज्ञा या पक्ष-जिस वस्तु को हम सिद्ध करना चाहते हैं, उसका प्रथम निर्देश करना प्रतिज्ञा या पक्ष है । जैसे-इस पर्वत में अग्नि है ।
(ii) हेतु-साधन को दर्शाने वाला वचन हेतु है । जैसे-क्योंकि इसमें धुआ है।
(iii) उदाहरण हेतु को भलीभांति समझाने के लिए दृष्टान्त का प्रयोग करना उदाहरण है। जैसे - जहाँ-जहाँ धुआ होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, यथा-रसोईघर । यह साधर्म्य उदाहरण है। जहाँ अग्नि न हो, वहाँ धुआ नहीं होता, जैसे-जलाशय में। यह वैधर्म्य उदाहरण है।
(iv) उपनय-हेतु का धर्मों में उपसंहार करना उपनय है। जिसमें साध्य रहता हो, वह धर्मी कहलाता है। जैसे-'इस पर्वन में अग्नि का अविनाभावी धुआ है।'
(v) निगमन-प्रतिज्ञा के समय जिस साध्य का निर्देश किया हो, उसे. उपसंहार के रूप में पुनः कहना निगमन है। जैसे-'इसलिए यहाँ अग्नि है।'
(vi) आगम--आप्त-पुरुषों के वचन से उत्पन्न होने वाले अर्थसंवेदन को 'आगम' कहते हैं।' तत्त्व को यथार्थरूप से जानने और उसका यथार्थ निरूपण करने वाले तथा रागद्वेषादि दोषों के सम्पूर्ण नाशक तीर्थंकर आप्त पुरुष हैं। उनके वचन से जो ज्ञान होता है, वह आगम कहलाता है। उपचार से तीर्थंकरों के वचन-संग्रह को भी आगम कहते हैं। आप्तपुरुष के वचन प्रामाण्य के लिए किसी हेतु की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं प्रमाण है।
नयवाद एक प्रश्न : एक समाधान--यहाँ प्रश्न होता है कि यदि पदार्थ का स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना सकता है तो फिर नय की क्या आवश्यकता है। इसका समाधान यह है कि प्रमाण के द्वारा पदार्थ का समग्र (सामान्य-विशेषात्मक) रूप से बोध होता है, क्योंकि अखण्ड वस्तु प्रमाण का विषय है, जबकि नय का विषय उस वस्तु का एक अंश है । नय के द्वारा पदार्थ का अंशरूप से बोध होता है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए ये दोनों ही आवश्यक हैं। जैसे -
१ आप्तवचनाविभूतमर्थसंवेदनमागमः ।
-प्रमाणनयतत्त्वालोक ४१