________________
२७६ | जैन तत्त्वकलिका : नवम कलिका
इन तीनों का फलितार्थ यह है कि संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय आदि दोषों से रहित स्व पर अर्थ का सम्यक् निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है ।
प्रमाण का फल
प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञान की निवृत्ति है, केवलज्ञान का फल सुख और उपेक्षा है । शेष ज्ञानों का फल ग्रहण और त्यागबुद्धि है ।" सत्य ज्ञान होने पर सन्देह, भ्रम, मूढ़ता आदि दूर हो जाते हैं और वस्तु का यथार्थ स्वरूप ज्ञात होता है । प्रमाण के आधार पर वस्तु का यथार्थ ज्ञान होने पर यदि वह वस्तु निर्दोष - इष्ट हो तो उसे ग्रहण. करने की और सदोष - अनिष्ट हो तो उसका त्याग करने की बुद्धि जागृत. होती है ।
प्रमाण के भेद-प्रभेद
प्रमाण की संख्या के विषय में दार्शनिकों का मत भिन्न-भिन्न है । जैनदर्शन ने मुख्य दो ही प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन दो भेदों प्रमाण के सभी भेदों का समावेश हो जाता है ।
प्रत्यक्ष प्रमाण - यथार्थता के क्षेत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों का स्थान समान है, न्यूनाधिक नहीं । दोनों अपने-अपने विषय में समान बल रखते हैं | परन्तु सामर्थ्य की दृष्टि से दोनों में अन्तर है । प्रत्यक्ष ज्ञप्तिकाल में स्वतन्त्र होता है; जबकि परोक्ष साधन परतन्त्र । फलतः प्रत्यक्ष का पदार्थ के साथ अव्यवहित- साक्षात् सम्बन्ध होता है, और परोक्ष का व्यवहित, अर्थात् - अन्य माध्यमों के द्वारा होता है ।
जैनाचार्यों ने लोकदृष्टि का समन्वय करने हेतु प्रत्यक्ष के दो भेद किये - सांव्यवहारिक (इन्द्रिय प्रत्यक्ष ) और पारमार्थिक ( आत्म) प्रत्यक्ष |
पारमार्थिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैं - सकल (केवलज्ञान) प्रत्यक्ष और विकल (नोकेवलज्ञान) प्रत्यक्ष । विकल प्रत्यक्ष को पुनः दो भेद हैं - अवधि
और मनःपर्याय |
सांव्यवहारिक या इन्द्रिय- अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के चार भेद हैं - अवग्रह, हा, अवाय और धारणा ।
इन्द्रिय, मन अथवा प्रमाणान्तर की सहायता के बिना आत्मा को
१ प्रमाणस्य फलं साक्षाद्ज्ञान निवर्तनम् ।
केवलस्य सुखोपेक्षा, शेषस्यादानहानधी ॥
- श्लोकवार्तिक २८