________________
नवम कलिका
सम्यग्ज्ञान के सन्दर्भ में
प्रमाण-नय स्वरूप
केवलज्ञान सर्वोत्कृष्ट ज्ञान है। शेष ज्ञान यत्किञ्चित् आवरणात्मक हैं । किन्तु एक ज्ञान ऐसा है, जो केवलज्ञान के निकट पहुँचा सकता है, वह है-श्रुतज्ञान । श्रुतज्ञान की उपलब्धि मुख्यतया दो माध्यमों से होती हैआगम से और प्रमाण-नयादि से। आगम से आप्तसर्वज्ञपुरुष-कथित ज्ञान उस प्राप्त हो सकता है, किन्तु अल्पज्ञ पुरुष का ज्ञान आवृत होने के कारण वह सर्वज्ञोक्त ज्ञान का पूरा-पूरा निर्णय नहीं कर पाता, उनके द्वारा बताए गये शब्दों का अर्थ यही है या और कुछ ? इसका यथार्थ ज्ञान नहीं कर सकता। इसलिए उन जिनोक्त तत्त्वभूत पदार्थों के ज्ञान के लिए प्रमाणों और नयों' का सहारा लेना उसके लिए आवश्यक होता है क्योंकि इनके बिना वह आगमोक्त शब्दों-सिद्धान्तों का हार्द नहीं समझ सकता न ही हृदयंगम कर सकता है।
अतः इस कलिका में प्रमाणवाद, नयवाद, अनेकान्तवाद आदि महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों की हम चर्चा करेंगे।
प्रमाणवाद प्रमाण शब्द की तीन व्याख्याएँ क्रमशः दृष्टिगोचर होती हैं-(१) जो प्रमा (जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही मानना) का करणं-निकटतम साधन है। (२) प्रकर्ष रूप से--संशय-विपर्यय-अनध्यवसायदोष रहित होकर वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान प्रमाण हैं। (३) स्वर-पर-व्यवसायि ज्ञान प्रमाण है।
१ प्रमाणनयैरधिगमः
-तत्त्वार्थ० ११६ २ 'प्रमायाः करणं प्रमाणम्' ३ 'प्रकर्षण-संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते-परिच्छिद्यते-ज्ञायते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम् ।
-प्रमाणनयतत्त्वालोक ४ 'स्व-पर-व्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्'
-प्रमाणनयतत्त्वालोक