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२५८ | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका
प्रोत्साहन देना, चोरी के लिए प्रेरित करना कि बेकार क्यों बैठे हो ? चोरी करके माल लाओ, हम बेच देंगे, (३) विरुद्धराज्यातिक्रम-राज्य के जिन नियमों का उल्लंघन करने से दण्डनीय बनना पड़े, ऐसा आचरण करना; जैसे चुगी, कर आदि की चोरी । राज्य की सीमा का उल्लंघन करके दूसरे राज्य में जाकर तस्कर व्यापार करना, (४) कूटतुला-कूटमान-झ्ठे तौल और झठे नाप का उपयोग करना या तोल नाप न्यूनाधिक करना; और (५) तत्प्रतिरूपकव्यवहार - शुद्ध वस्तु में उसके सदृश या असदृश वस्तु मिलाकर बेचना, मिलावट करना । जैसे–दूध में पानी, शुद्ध घी में वेजीटेबल घो मिलाना।' (४) स्थूल मैथुन विरमणव्रत
यह श्रावक का चतुर्थ अणुव्रत है। इसका शास्त्रीय नाम-स्वदारसंतोषपरदारविरमणव्रत है । यह आंशिक ब्रह्मचर्यव्रत है। इसमें स्वपत्नी-संतोष के अतिरिक्त समस्त मैथुनों-अब्रह्मचर्यों का त्याग किया जाता है। अतः श्रावक इस व्रत में परस्त्री (विधवा, कुमारी कन्या, वेश्या आदि) का त्याग करके केवल स्व-स्त्रीसंतोषव्रत पर स्थिर रहता है और देवी या तिर्यञ्च मादा के साथ भी मैथुन का सर्वथा परित्याग कर देता है।
गृहस्थ इस व्रत का पालन-एक करण और एक योग से-करू नहीं काया से-करता है यानी परस्त्रीसंग काया से नहीं करूंगा। इसका कारण यह है कि वेदमोहनीय कर्म के उपशम और व्यभिचार-निरोध के लिए विवाह किया जाता है । गृहस्थ को अपने पुत्र-पुत्री का भी विवाह करना पड़ता है तथा अन्य स्त्रियों की रुग्णादि प्रसंगों पर सेवा-शुश्रूषा भी करनी पड़ती है, इस कारण स्त्री स्पर्शादि को टाला नहीं जा सकता। फिर भी इस व्रत की सुरक्षा के लिए पांच अतिचारों को जानकर उनसे बचने का निर्देश भगवान् ने दिया है। वे पांच अंतिचार' ये हैं-- . (१) इत्वरिकापरिगृहीता गमन-कामबुद्धि के वशीभूत होकर यदि कोई चतुर्थ अणुव्रतधारक श्रावक यह विचार करे कि मेरा तो केवल परस्त्रीगमन
१ तयाणंतरं च णं थूलगस्स अदिण्णादाणवेरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा, न
समायरियव्वा, तं जहा-तेणाहडे, तक्करप्पओगे, विरुद्ध रज्जाइक्कम्मे, कूडतुलकूडमाणे तप्पडिरूवगववहारे ।
-उपास कदशांग अ० १ २ 'सदारसंतोसिए अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पच्चक्खाइ ।' -आवश्यकसूत्र ३ 'तयाणंतरं च ण सदारसंतोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा,
तं जहा—इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अणंगकीड़ा परविवाहकरणे, कामभोगतिव्वाभिलासे ।'
-उपासकदशांग अ० १