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२५६ | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका
विरमण, (२) स्थूलमृषावाद-विरमण, (३) स्थूल अदत्तादान-विरमण, (४) स्थूल मैथुन-विरमण और (५) परिग्रह-परिमाणव्रत । (१) स्थूलप्राणातपातिविरमण
संसार में दो प्रकार के जीव हैं-सूक्ष्म और स्थूल । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ये पांच स्थावर एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म हैं। इन पाँचों की विराधना का गृहस्थ जीवन में सर्वथा त्याग नहीं हो सकता, किन्तु गृहस्थ उनका विवेक या मर्यादा कर सकता है । इसीलिए शास्त्रकार ने स्थूल शब्द दिया है । स्थूल का अर्थ है-द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जो त्रसजीव, आबालवद्ध प्रसिद्ध हैं, उन निरपराधी त्रस जीवों के संकल्पपूर्वक वध का त्याग करना । स्थूलप्राणातिपातविरमण का यह स्पष्ट अर्थ है।'
गृहस्थ से गृहकार्य में, व्यापार-धंधे में या अन्य आवश्यक कार्यों में जो त्रसजीवों की हिंसा हो जाती है, वह आरम्भजाहिसा है किन्तु वह जान-बूझकर संकल्पपूर्वक आकुट्टि की बुद्धि से नहीं की जाती। अतः वह क्षम्य है। इसी प्रकार किसी अपराधी या विरोधी (आततायी) को दण्ड देना पड़े इसमें भी गृहस्थ का अहिंसाणुव्रत भंग नहीं होता । किन्तु वह दण्ड बदले की भावना से नहीं देना चाहिए, अपराधी के सुधार को भावना ही होनी चाहिए। इतना होने पर भी गृहस्थ प्रत्येक कार्य यतनापूर्वक विवेक से करेगा तभी उसके अहिंसाणुव्रत का भलीभाँति पालन हो सकेगा।
प्रथम स्थूलप्राणातिपातविरमणव्रत के शुद्धरूप से पालन के लिए पांच अतिचार भगवान् ने बताए हैं और कहा है कि इन अतिचारों को सिर्फ जानना चाहिए, इनका आचरण नहीं करना चाहिए। (१) बन्ध, (२) वध, (३) छविच्छेद, (४) अतिभार और (४) भक्तपानविच्छेद । (२) स्थूल मृषावादविरमण
श्रावक को स्थूल असत्य का त्याग करना चाहिए। यह द्वितीय अणुव्रत है। मृषा के तीन अर्थ फलित होते हैं अतथ्य (झठ), अप्रिय और अपथ्य । जो सत्य से रहित हो अथवा विपरीत हो या जिसमें सत्य को छिपाया जाय, वह
१ 'थुलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं'
-स्थानांग स्था० ५ उ०१ २ 'तयाणंतरं च णं थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासए णं पंच अइयारा
पेयाला, जाणियब्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-बंधे, वहे, छविच्छेए, अइभारे, भत्तपाणवोच्छेए।'
-उपासकदशांग अ० १