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गृहस्थधर्म-स्वरूप | २५५ श्रवण, देव-गुरु-धर्म की उपासना, तथा स्वाध्याय द्वारा नौ तत्त्वों का चिन्तन अपेक्षित है । ऐसा करने से मिथ्यात्व का मल दूर हो जाता है, सम्यक्त्व का सूर्य प्रकाशित होने लगता है; जीवादि तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धा, देव-गुरु-धर्म पर दृढ़ अनुराग तथा धर्माचरण द्वारा जीवन सफल बनाने का उत्साह जागृत हो जाता है। सम्यक्त्व : स्वरूप, लक्षण और अतिचार
व्रतों को टिकाने के लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति आवश्यक है । व्यवहार सम्यक्त्व के लिए देव, गुरु, धर्म तथा नौ तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धा रखना अनिवार्य है।
किसी भव्यात्मा को सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, तब उसके अनन्तानबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, सम्यक्त्वमोहनीय मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहत्रोय, इन सातों प्रकृतियों का क्षयोपशम हो जाता है। व्यवहार सम्यक्त्व पालन करने के लिए सम्यक्त्व के ६७ बोलों को अपनाना आवश्यक है।
सम्यक्त्व आ जाने पर ये ५ लक्षण प्रकट हो जाते हैं-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ।'
___ श्रावक को सम्यक्त्व सुरक्षित रखने के लिए उसके पांच अतिचारों (दोषों) से बचना चाहिए-(१) शंका, (२) कांक्षा, (३) विचिकित्सा, (४) अन्यदृष्टि-प्रशंसा और (५) अन्यदृष्टि-संस्तव ।
आचार्यों ने श्रावक के लिए आपत्तिकाल में सम्यक्त्व में कुछ आगार (अपवाद) बताए हैं, जिनका विवेकपूर्वक उपयोग सिर्फ आपत्काल में वह करे तो उसका सम्यक्त्व भंग नहीं होता । वे आगार ये हैं
(१) राजाभियोग, (२) गणाभियोग, (३) बलाभियोग, (४) देवाभियोग (५) गुरु-निग्रह, और (६) वृत्तिकान्तार ।'
श्रावकधर्म के पांच अणुव्रत __ श्रावक को सम्यक्त्व के पश्चात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर यथाशक्ति क्रमशः पांच अणुव्रतों का ग्रहण करना चाहिए-(१) स्थूल प्राणातिपात१ 'प्रशम-संवेग-निर्वेदानुकम्पाऽस्तिक्याभिव्यक्ति लक्षणं तदिति । २ शंका-कांक्षा-विचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टे रतिचाराः ।
-धर्म बिन्दु अ. ३, सू. १०, १२ ३ 'रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं, देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकतारेणं ।'
-उपासकदशांग अ०