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________________ अष्टम कलिको . चारित्र धर्म के सन्दर्भ में गृहस्थधर्म-स्वरूप श्रेयस् की साधना ही धर्म है श्रेयस् की साधना ही धर्म है। यही साधना पराकाष्ठा तक पहुँच कर सिद्धि बन जाती है। चैतन्य (आत्मा) समस्त उपाधियों, कर्मों और कषायादि विकारों से मुक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप में पहुँच जाए, शुद्ध चैतन्यस्वरूप हो जाए, आत्मा का पूर्ण विकास हो, चैतन्य का निराबाध प्रकाश हो, उसका नाम श्रेयस है। अतः श्रेयस् की साधना को हम आत्मा की आराधना कह सकते हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें तो आत्मरमण ही धर्म है। ज्ञान और चारित्र ये आत्मा के धर्म है। इन्हें ही शास्त्रीय भाषा में श्रुतधर्म और चारित्रधर्म कहा गया है । ज्ञान के दो पहलू हैं-वस्तु का यथार्थ ज्ञान और उसका श्रद्धान (दर्शन) । इस दृष्टि से धर्म के तीन रूप बन जाते हैं—(१) सम्यग्दर्शन, (२) सम्यग्ज्ञान और (३) सम्यक्चारित्र । साधना की दृष्टि से सम्यग्दर्शन का स्थान प्रथम है। सम्यग्ज्ञान का दूसरा और सम्यक्चारित्र का तीसरा। दर्शन के बिना ज्ञान और ज्ञान के बिना चारित्र और चारित्र के बिना कर्ममोक्ष और कर्ममोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता । अतः जब ये तीनों पूर्ण होते हैं, तभी साध्य साधता है, आत्मा कर्ममुक्त होकर परमात्मा बन जाता है।' श्रेयस् की साधना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से होती है । श्रुतधर्म की अपेक्षा चारित्रर्धर्म का महत्व जैनदृष्टि से राग और द्वष ही संसार है, ये दोनों कर्मबीज हैं । ये १ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोखस्स निव्वाणं ।।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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