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विषय-सूची | ४५
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त्यागधर्म २५५, (१०) ब्रह्मचर्य वासरूप धर्म २५५, श्रमण को प्राप्त होने वाली लब्धियाँ २५६, भगवान महावीर के मुनिगण की विशेषताएँ २५८, स्थविर मुनियों की अप्रतिम गरिमा २५६ साधु की ३१ उपमाएँ २६० साधु पद का महत्व २६३ ।
तृतीय कलिका ७. धर्म के विविध रूप (वसविध धर्म)
धर्म का अर्थ १, अर्थ सम्बन्धी भ्रम १, केवली प्रज्ञप्त धर्म ही ग्राह्य २, शुद्ध धर्म की कसौटी ४, चार भावनाओं का स्वरूप ४, धर्माचरण का प्रधान सूत्र ६, धर्म के दो रूपः मौलिक और सरल ७, धर्म का फलः इहलौकिक या पारलौकिक ८, धर्म की आवश्यकता ६, धर्मः मानव जीवन का प्राण ११, धर्म की उपयोगिता १२, सुख का कारण-इच्छाओं का निरोध १४, सच्चा सुख आत्म-स्वाधीनता १५, धर्म की उत्पत्ति १७, धर्म की शक्ति १८,'धर्म की महिमा १६, शुद्ध धर्म प्राप्ति की दुर्लभता के कारण २०, [१] मनुष्य जन्म २०, [२] आर्यक्षेत्र २१, [३] उत्तम कुल २१, [४] दीर्घ आयु २१, [५] अविकल इन्द्रियाँ २२, [६] नीरोग शरीर २२, [७] सद्गुरु समागम २२, [८] शास्त्र श्रवण २२, [६] शुद्ध श्रद्धान २३, [१०] धर्मस्पर्शना २३, एक ही धर्म के विविध प्रकार क्यों २४, दस प्रकार के धर्मों का स्वरूप २७, लौकिक और लोकोत्तर धर्म २८, लौकिक धर्म आधार : लोकोत्तर धर्म आधेय २६, लौकिक धर्मकी कसौटी ३०, दोनों प्रकार के धर्मों का पालन आवश्यक ३१, प्रत्येक धर्म की रक्षा के लिए धर्मनायक ३१, [१] ग्रामधर्म ३२ [२] नगरधर्म ३३, [३] राष्ट्रधर्म ३५, [४] पाषण्ड धर्म ३७, पाषण्ड शब्द के विविध अर्थ ३७, पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति ३८ पाषण्डस्वीकृत व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन ३६, [५] कुलधर्म ३६, कुलधर्म का महत्व ४०, कुलधर्म का व्यापक क्षेत्र ४१, लौकिक कुल ४१, लोकोत्तर कुल ४२, (६) गणधर्म ४२, लौकिक गणधर्म ४२, लोकोत्तर गणधर्म ४३, आचार्य, उपाध्याय, गणी, गणावच्छेदक, प्रवर्तक और स्थविर का गणधर्म ४४, धार्मिक व्रत ग्रहण करते समय भी लौकिक गण का विशेष ध्यान रखा जाता था ४५, (७) संघ धर्म ४५, संघ की विराट शक्ति ४६, संघ धर्म का ध्येय ४७, लौकिक संघ धर्म ४७, लोकोत्तर संघ धर्म ४८, संघ धर्म का महत्व ५०, संघ धर्म का पृथक वर्णन क्यों ५१, संघ धर्म में भी साधु और श्रावक के धर्म में अन्तर ५१,