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अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २३३
सुख-दुःख - जीव का प्रीतिरूप परिणाम सुख और परितापरूप परिणाम दुःख है । सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्मरूप अन्तरंग कारण और शुभाशुभ परिणामजनक द्रव्य, क्षेत्र आदि बाह्य निमित्त कारणों से सुख और दुःख उत्पन्न होते हैं
जीवन-मरण - आयुकर्म के उदय से देहधारी जीव के प्राण और अपान का चलते रहना जीवित (जीवन) है, और प्राणापान का उच्छेद मरण है ।
वस्तुतः जीव और विशिष्ट कर्मपुद्गल स्कन्ध परस्पर सम्बद्ध होते हैं । कर्मपुद्गलों के साथ जीव का सम्बन्ध उसकी विविध प्रवृत्तियों, क्रियाओं, मनोभावों के कारण होता है । तब वे कर्मपुद्गल जीवों को प्रभावित करते हैं । जितने भी संसारी प्राणी हैं, वे सब किन्हीं न किन्हीं शुभाशुभ कर्मपुद्गलों से संयुक्त होते हैं, और उनके फलस्वरूप वे सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि परिणामों को भोगते रहते हैं ।
जो जीव इन कर्मपुद्गलों से मुक्त हो जाते हैं । वे इन सभी परिणामों मुक्त हो जाते हैं और सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं ।
इस प्रकार पुद्गल जीवों के प्रति अनुग्रह-निग्रह करने में निमित्त कारण बन जाते हैं ।
इसके अतिरिक्त पुद्गलों के दशविध परिणाम ( कार्य ) भी जीव के लिए उपकारक हैं । वे इस प्रकार हैं- शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत । संक्षेप में इनकी उपकारकता इस प्रकार है
(१) शब्द - पुद्गल द्रव्य का ध्वनि रूप परिणाम शब्द है; जो श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य है, मूर्त है, भौतिक है । जैसे पीपर आदि वस्तुएँ द्रव्यान्तर के वैकारिक संयोग से विकृत मालूम होती हैं, वैसे ही कण्ठ, तालु, मस्तक,
भ, दाँत और ओठ आदि द्रव्यान्तर के विकार से शब्द भी विकृत होता है, अतः पीपर की भाँति वह मूर्त है । ढोल आदि बजते समय भूमि में कम्पन होता है, बम गोले आदि की आवाज से प्रायः कान के पर्दे फट जाते हैं, पर्वत आदि से टकराने पर प्रतिध्वनि होती है । इन कारणों से शब्द मूर्त सिद्ध होता है । वायु से प्रेरित शब्द फैलता है, बुलंद शब्दों के आगे सूक्ष्म शब्द दब जाते हैं । इससे सिद्ध होता है कि शब्द पौद्गलिक हैं ।
शब्द दो प्रकार से उत्पन्न होते हैं- प्रयोग से ( प्रयत्नपूर्वक) और