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अस्तिकायधर्म - स्वरूप | २३१
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते ? काल कहाँ बरतता ? पुद्गल का रंगमंच कहाँ बनता ? यह विश्व निराधार ही होता । आकाश द्रव्य सभी द्रव्यों के लिए भाजन के समान है ।
काल द्रव्य के उपकार - जिन उपकारों के कारण काल को द्रव्यकोटि में गिना जाता है, उनका वर्णन तत्त्वार्थसूत्र में किया गया है - वर्त्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व - अपरत्व, ये काल के उपकार हैं ।" वर्तना का अर्थ है— अपने-अपने पर्याय की उत्पत्ति में प्रवर्त्तमान धर्म आदि द्रव्यों का अस्तित्व जिस अवधि तक रहता है, उस अवधि तक काल का निमित्त रूप में वर्तमान (विद्यमान ) रहना, प्रेरक रहना अथवा पदार्थों के परिणमन में सहकारी होना । काल पदार्थ की अवधि के उन सब क्षणों का सूचक होता है | परिणाम - परिणमन भी काल के बिना समझाया नहीं जा सकता। जब किसी पदार्थ में परिणमन (स्वजाति का त्याग किये बिना होने वाले द्रव्य का अपरिस्पन्द पर्याय जो पूर्वावस्था की निवृत्ति और उत्तरावस्था की उत्पत्ति रूप है ) होता है, तब स्वाभाविक रूप से परिणमन का सूचक काल होता है । जैसे -- जीव में ज्ञानादि या क्रोधादिरूप तथा पुद्गल में नील - पीतवर्णादिरूप एवं धर्मास्तिकाय आदि शेष द्रव्यों में अगुरुलघुगुण की हानि - वृद्धिरूप परिणाम होता है, उसका सूचक काल होता है । गति का अर्थ है - आकाश प्रदेशों में क्रमशः स्थान परिवर्तन करना । अतः किसी भी पदार्थ की गति में स्थान- परिवर्तन का विचार उसमें लगने वाले काल के साथ किया जाता है । इसी प्रकार अन्य क्रियाओं में भी समय का व्यय होता है । इसमें काल 'निमित्त - सहायक बनता है । परत्व - अपरत्व का अर्थ है - पहले होना और पीछे होना, अथवा पुराना और नया या ज्येष्ठत्व - कनिष्ठत्व आदि, ये विचार भी काल के बिना नहीं समझाए जा सकते ।
यद्यपि वर्तन आदि कार्य यथासम्भव धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के ही हैं, तथापि काल सबका निमित्त कारण होने से काल द्रव्य के उपकार रूप से यहाँ उल्लेख किया गया है ।
पुद्गलास्तिकाय के उपकार - पुद्गलों के उपकार यह हैं --- शरीर, वाणी, मन, निःश्वास और उच्छ्वास तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि । इसके अतिरिक्त शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप
१ वर्त्तना, परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ।
२ पदार्थ परिणतेर्यत् सहकारित्वं सा वर्त्तना भण्यते ।
—तत्त्वार्थ० ५।२२ बृहद्रव्यसंग्रहवृत्ति