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२२६ | अन तत्त्वकलिका-सप्तम कलिका
- दर्शनक्रिया की इस विशेषता से ही आकाश नीले रंग का दिखाई देता है। किसी व्यक्ति ने रंग-बिरंगे वस्त्र पहने हों, वह ज्यों-ज्यों दूर जाता है, त्यों-त्यों एक-सा रंग दिखाई देता है और अन्त में आसमानी रंग का कोई धब्बा हो, ऐसा आभास होता है । पर्वत शिखरों का अपना रंग कैसा ही हो, मगर दूर से देखने वाले को वे हलके नीले या हलके काले रंग के दिखाई देते हैं । आकाश में फैले हुए वातावरण के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए । प्रातः और सायंकाल आदि समय में आकाश में जो रंग दिखाई देते हैं, वे सूर्य की किरणों के वातावरण में अमुक प्रकार से प्रसारण और विभिन्न पद्गल परमाणुओं के संयोग होने पर आधारित हैं ।
. एक प्रश्न है जो अवकाश दे, उसे आकाश कहते हैं । पाँचों द्रव्यों को आश्रय देने से कारण लोकाकाश को तो आकाश कहना उचित है, परन्तु अलोकाकाश तो किसी को भी आश्रय नहीं देता, फिर उसे आकाश क्यों कहा जाता है ?
उत्तर में यह कहना है कि आकाश का धर्म तो अवकाश देना ही है, किन्तु वह अवकाश-आश्रय उसे ही देता है, जो उसमें रहे-अवगाहन करे। अलोकाकाश में जब कोई द्रव्य नहीं रहता, न जाता है, तब अलोकाकाश किसे अवकाश दे ? वस्तुतः आकाश का धर्म (स्वभाव) तो अवकाश देना ही है, बशर्ते कि उसका आश्रय लेने कोई जाए । धर्म-अधर्मद्रव्य का अभाव होने से अन्य द्रव्य भी वहाँ नहीं रहते।
(४) कालद्रव्य-द्रव्य से-कालद्रव्य अनन्त हैं, क्योंकि वह अनन्त जीवों और पुद्गलों पर वरतता है।
क्षेत्र से ढाई द्वीप प्रमाण है । क्योंकि मनुष्य लोक में ही सूर्य-चन्द्र भ्रमण करते हैं। उनके घूमने के आधार पर ही दुनिया में घड़ी, घंटा, दिन-रात, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष, आदि का एवं तदनुसार जीवों के के आयुष्य का परिमाण होता है।
इसीलिए स्थानांगसूत्र में काल के चार प्रकार बताए हैं-(१) प्रमाण काल, (जिस काल के द्वारा पदार्थ का माप किया जाए), (२) यथायुनिवृत्तिकाल (जीवन की विविध अवस्थाएँ,) (३) मरण काल और (४) अद्धा-काल' (चन्द्र-सूर्य की गति से सम्बन्धित घंटा, दिन-रात, आदि समय) ।
अद्धाकाल ही काल का मुख्य रूप है, वही व्यावहारिक काल है। समय से लेकर पुद्गल परावर्तन तक के जितने भी विभाग किये जाते हैं, वे
१ स्थानांग, स्थान ४