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कर्मवाद : एक मीमांसा | १५३ आत्मबल द्वारा कर्मों के आवरण को दूर करके किया जा सकता है, और परमात्मा बना जा सकता है।
साधारण अज्ञ मानव जहाँ जीवन की विघ्न-बाधाओं और विपत्तियों से घबराकर धर्म-कर्म को भूल बैठता है, रोने-चिल्लाने लगता है, श्वानवृत्तिवश बाह्य कारणों को कोसकर या अपने संकट का दायित्व उन निमित्तों पर डालकर उनसे लड़ता-झगड़ता है। इसके विपरीत कर्मवादी सिंहवृत्ति से सोचता है कि वृक्ष के मूल कारण-बीज तरह दुःख या संकट का बीज स्वकृतकम हैं, पृथ्वी-पानी-वायु आदि बाह्य निमित्तों की तरह, ये तो केवल बाह्य निमित्त है। अतः वह अपने संकट या दुःख के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहराता। बल्कि अपने अशुभकर्मों का फल मानकर उन्हें समभावपूर्वक सहता है।
____ कितनी उपयोगिता है, व्यावहारिक एवं परमार्थ दृष्टि से कर्मवाद की।
. कर्मवाद के अन्तर्गत कर्म क्या हैं ? आत्मा के साथ वे कैसे बँधते हैं ? उनके कौन-कौन-से कारण है, किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति उत्पन्न होती है ? कर्म कम से कम और अधिक से अधिक कितने समय तक आत्मा के साथ लगे रहते हैं ? आत्मा से सम्बद्ध होकर भी कर्म कितने काल तक फल नहीं देते ? विपाक का नियत समय बदल सकता है या नहीं ? यदि बदल सकता है तो उसके लिए कैसे आत्म-परिणाम आवश्यक हैं ? आत्मा कर्म का कर्ता और भोक्ता क्यों और किस तरह हैं ? आत्मा जब विकासोन्मुख होकर परमात्म भाव प्रकट करने को उत्सुक होता है, तब कर्मों के साथ किस प्रकार जूझता है ? समर्थ आत्मा आगे बढ़ते हैं हुए कर्मपर्वतों को कैसे चूर-चूर कर डालता है ? पूर्ण विकास के समीप पहुँचे हुए आत्मा को भी उपशान्त हुए कम किस प्रकार पुनः दबा देते हैं ? कर्म बलवान् हैं या आत्मा ? ऐसे अनेकानेक प्रश्न आते हैं, कर्मवादी जिनका युक्तिसंगत समाधान कर्मवाद से पा लेता है और जीवन-पथ में आने वाली उलझनों को भली-भाँति सुलझा लेता है । यही कर्मवाद की विशेषता है।
__ कमवादी मानव कर्म करते समय अत्यन्त सावधान रहता है, वह आत्मा पर से कर्मों का आवरण दूर करने के लिए अहर्निश प्रयत्नशील रहता है।
___ आइए, कर्मवाद से सम्बन्धित इन और ऐसे सभी प्रश्नों पर विचार कर लें।