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________________ ६८ | जैन तत्त्वकलिका : चतुर्थ कलिका शास्त्र की आँख के द्वारा ही होता है। इसीलिए साधक का अन्तर्नेत्र आगम बताया गया है। उससे वह चेतन, अचेतन, जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आश्रवसंवर, बन्ध-मोक्ष आदि का स्वरूप भलीभाँति जान-देख लेता है। शास्त्र से ही वह स्वपर पदार्थों को भलीभाँति जान लेता है। मैं कौन हूँ ? मेरे साथ शरीर, इन्द्रिय, मन, वाणी आदि का क्या सम्बन्ध है ? पुण्य, पाप, आश्रव-संवर, कर्मबन्ध आदि के क्या-क्या फल हैं ? जीव को नाना गतियों-योनियों में, नाना प्रकार के दुख-दुःखों की अनभूति किन-किन कारणों से होती है ? जन्म-मरण से मुक्त होने का उपाय क्या है ? इन सबको जानने के लिए छद्मस्थ (अपूर्ण) अवस्था तक शास्त्र का आलम्बन अनिवार्य है। प्रशमरति में शास्त्र का उद्देश्य एवं निर्वचन इस प्रकार किया गया है-जिनका मन रागद्वष से उद्धत है, उन जीवों को यह सद्धर्म सम्यक प्रकार से अनुशासित (शिक्षित) करता है, और दुःख से बचाता है, इसलिए सत्पुरुष इसे शास्त्र कहते हैं। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने शास्त्र का अर्थ बताते हुए कहाजिसके द्वारा यथार्थरूप से सत्यरूप ज्ञ ये का, आत्मा का बोध हो, एवं आत्मा अनुशासित हो, वह शास्त्र है। ___जैन परम्परा के ज्योतिर्धर आचार्य हरिभद्रसूरि ने शास्त्र का लाभ बताते हुए कहा जिस प्रकार वस्त्र की मलिनता का प्रक्षालन करके जल उसे उज्ज्वल बना देता है, उसी प्रकार शास्त्र भी मानव के अतःकरण रत्न में स्थित काम-क्रोधादि कालुष्य का प्रक्षालन करके उसे पवित्र और निर्मल बना देता है। कौन-सा शास्त्र सच्चा है, कौन-सा नहीं ? इसका विवेक तो पहले १ 'आगमचक्खू साहू ।' -प्रवचनसार ३१३४ २ यस्माद् रागद्वषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति सद्धर्मे । । संत्रायते च दु:खाच्छास्त्रमिति निरुच्यते सद्भिः ।। -प्रशमरति० श्लोक १८७ ३ सासिज्जइ तेण तहिं वा नेयमाया व तो सत्थं । . -विशेषावश्यक भाष्य गा.१३८४ ४ मलिनस्य यथाऽत्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य तथा शास्त्र विदुर्बुधाः ।। -योगबिन्दु २६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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