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________________ धर्म के विविध स्वरूप | २१ में ही हो सकती है। धर्म की सर्वोच्च आराधना का अधिकारी देव तो हो नहीं सकता, न ही नारक हो सकता है, इन दोनों भवों में अधिक से अधिक तो सम्यग्दर्शन हो सकता है, व्रताचरण नहीं। तियञ्चपंचेन्द्रिय के भव में जीव सम्यग्दर्शन एवं देशविरति श्रावकव्रत का आचरण कर सकता है। मनुष्य चाहे तो वह सम्यग्दर्शन और देशविरति श्रावक व्रताचरण की भूमिका से भी आगे बढ़कर सर्वविरति साधुत्व का अंगीकार कर सकता है। परन्तु मनुष्यजन्म मिलना भी आसान नहीं है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय एवं तियञ्चपंचेन्द्रिय को योनि एवं भव को पार करने पर प्रचुरपुण्य राशि संचित होने पर ही मनुष्य जन्म मिलता है। इसीलिए आत्मिक उत्थान की दृष्टि से मनुष्य-पर्याय को चिन्तामणि रत्न से उपमा दी गई है। क्योंकि जिस प्रकार चिन्तामणि मनुष्य को लौकिक सुखों की प्राप्ति कराने में सक्षम है उसी प्रकार उत्साहपूर्वक धर्म-पुरुषार्थ करने वाला मनुष्य पारलौकिक सुखों, यहाँ तक कि मुक्ति-सुख को भी प्राप्त कर सकता है। (२) आर्यक्षेत्र __मनुष्य जन्म मिल जाने पर आर्यक्षेत्र का मिलना दुर्लभ है, जहाँ उसे धर्मात्मा महापुरुषों एवं धर्मधुरन्धरों का समागम एवं धर्म का वातावरण मिल सकता है। अधिकांश व्यक्ति मनुष्यजन्म प्राप्त कर लेने पर भी अनार्य क्षेत्र में जन्म लेते हैं, वहाँ धर्म का सुसंयोग मिलना दुर्लभ है। (३) उत्तम कुल कदाचित् किसी मनुष्य को आर्य क्षेत्र मिल भी जाए फिर भी उत्तम कुल में जन्म होना बहुत हो प्रबल भाग्य से मिलता है। उत्तम कुलों में धर्माचरण होता रहता है, वहाँ धर्मपरायण माता-पिता, भाई-बहन, परिवारोजन आदि मिलते हैं। इस कारण धर्म-सम्मुखता अनायास ही हो जाती है। किन्तु नीच कुल में जन्म होने पर मनुष्य धर्म के पवित्र वातावरण से प्रायः वंचित रहता है । नीच कुलों में पापी-जनों की संगति और पापाचरण को प्रेरणा हो प्रायः मिलती है। (४) दीर्घ-आयु मनुष्यजन्म, आर्यक्षेत्र और उत्तम कुल प्राप्त होने पर भी कई मनुष्य अल्पायु होते हैं, प्रसवकाल में या शैशवकाल में ही मरण-शरण हो जाते हैं। आयु की अल्पता के कारण वे धर्माचरण नहीं कर पाते । धर्म उनके लिए अतीव दुष्प्राप्य होता है । अल्पायु वाला मानव धर्म को समझ भी नहीं पाता भाचरण तो दूर की वस्तु है।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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