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१६६ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
और रौद्रध्यान के १६ भेद हेय हैं, किन्तु इन दोनों अशुभ ध्यानों के त्याग के रूप में कथंचित् उपादेय हैं। (१२) व्युत्सर्ग-तप
त्याज्य वस्तु को छोड़ना व्युत्सर्ग तप है। व्युत्सर्ग तप के दो भेद हैंद्रव्यव्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग।
द्रव्यव्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं-(१) शरीरव्युत्सर्ग (शरीर सम्बन्धी ममत्व का त्याग करके शरीर की विभूषा और लाड़-प्यार न करना) -(२) गणव्युत्सर्ग (ज्ञानवान्, क्षमावान्, जितेन्द्रिय अवसरज्ञ, धीर, वीर, दृढ़ शरीर वाला एवं शुद्ध श्रद्धावान्, इन अष्ट गुणों का धारक मुनि, अपने गुरु की अनुमति प्राप्त करके विशिष्ट आत्मसाधना के लिए गच्छ का त्याग करके एकलविहारी होता है ।) (३) उपधि-व्युत्सर्ग (वस्त्र-पात्र का त्याग करना)
और (४) भक्त-पान व्युत्सर्ग- (नवकारसी-पौरसी आदि प्रत्याख्यान करना तथा खाने-पीने के द्रव्यों का परिमाण करना)।
भावव्युत्सर्ग के तीन भेद हैं- (१) कषायव्यत्सर्ग (क्रोधादि चारों कषायों को न्यून करना), (२) संसारव्युत्सर्ग-(चार गतिरूप संसार के कारणों-चारों गतियों के शास्त्रोक्त कारणों का विचार करके, उनका त्याग करना); और (३) कर्मव्युत्सर्ग-(ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के बन्ध के कारणों पर विचार करके कर्मबन्ध के कारणों का त्याग करना)।
___यह बारह प्रकार के तप का स्वरूप है। इन बारह प्रकार के तप का स्वरूप समझकर इहलोक-परलोकादि किसी भी लौकिक आकांक्षा से रहित होकर एकमात्र निजेरा के उद्देश्य से तपश्चरण करना तप-आचार है। ___आचार्य महाराज बारह प्रकार के तपश्चरण में स्वयं रत रहते हैं, और दूसरों को भी तपश्चरण की प्रेरणा देते हैं।
वीर्याचार - सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र तथा सम्यक्तप इन चारों मोक्ष-साधनों में अहर्निश पुरुषार्थ करना, ज्ञान, ध्यान, तप, संयम, सदूपदेश आदि धर्मबुद्धि के प्रत्येक कार्य में उद्यत रहना, धर्माचरण में अपना बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम करना वीर्याचार है। .आचार्य महाराज आगमव्यवहार, सूत्रव्यवहार, आज्ञाव्यवहार, धारणा व्यवहार और जीतव्यवहार इन पांचों व्यवहारों' के ज्ञाता होते हैं और
१ आगमे, सुए, आण्णा, धारणा, जीए।
- भगवती सूत्र