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१४६ : जैन तत्त्वकलिका–द्वितीय कलिका
(४) सार्मिक-अवग्रह याचन-एक साथ रहने वाले साधर्मो (सांभोगिक) साधुओं के वस्त्र-पात्र आदि उनकी आज्ञा लेकर ग्रहण करना अथवा अपने से पहले दूसरे किसी साधर्मी साधु ने कोई स्थान माँगकर ले रखा हो और उसी स्थान को उपयोग में लाने का प्रसंग आ जाए तो उस सामिक से स्थान की याचना करना सार्धामक-अवग्रह-याचन है।
(५) अनुज्ञापित पान-भोजन-विधिपूर्वक लाये हुए आहार, वस्त्र आदि का उपभोग गुरु आदि ज्येष्ठ मुनि की आज्ञा के बिना न करना, अनुज्ञापित पान-भोजन है।' इसके अतिरिक्त गुरु, वृद्ध, रोगी, तपस्वी, ज्ञानी और नवदीक्षित मुनि की वैयावृत्य करना; क्योंकि वैयावत्य से तप होता है, जो धर्म (कर्तव्य) का रूप है । कर्तव्य से जी चुराना भी अदत्तादान है। उससे विरत होना चाहिए।
___ आचार्य श्री इन सब प्रकार के अदत्तादान का मन, वचन, काया तथा कृत-कारित-अनुमोदितरूप से त्याग करते हैं ।
चतुर्थ-ब्रह्मचर्य महाव्रत इसका शास्त्रीय नाम 'सर्व-मैथुनविरमण महाव्रत' है । अर्थात्-देवी, मानुषी और तिर्यञ्ची के साथ तीन करण तीन योग से सर्व प्रकार से मैथुन सेवन का त्याग करना मैथुनविरमण महाव्रत है। यह इसका निषेधात्मकरूप है। इसका विधेयात्मकरूप है-मन, वचन, काया से कृत-कारित-अनुमोदितरूप से पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्यमहाव्रत है। चतुर्थ महाव्रत की पाँच भावनाएँ
(१) स्त्रीपशुपण्डकसेवित (संसक्त) शयनासनवर्जनता-स्त्री, पशु और
१ बावश्यकशूत्र में तृतीय महाव्रत की पाँच भावनाओं का क्रम इस प्रकार है
(१) उग्गह अणुण्णावणया, (२) उग्गहसीमजाणणया, (३) सयमेव उग्गहाणुगिण्हणया,
(४) अणुण्णवियपरिभुजणया, (५) साहारणभत्तपाण अणु ण्णावियपडिभुजणया । १ जन तत्व प्रकाश में पांच भावनाओं का क्रम इस प्रकार है-(१) 'मिउग्गहजाती'
भावना, (२) 'अणुण्णवियपाणभोयण' भावना (३) 'उग्गहंसि उग्गहिसंति' भावना, (४) 'उग्गहं वा उग्गहंसि अभिक्खण' भावना और (५) अणुण्णविय मिउग्गहंजाती भावना।
-जैन तत्त्व प्रकाश पृ० १२५ ३ 'पवाओ मेहुणालो वेरमण ।'