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१४ | सम्पादकीय
ने श्रुतधर्म, चारित्रधर्म और अस्तिकाय धर्म; इन शाश्वत तत्वों की व्याख्या शाश्वत धर्म के माध्यम से की है, और सामयिक सत्यों की व्याख्या सामयिक धर्म के माध्यम से की । भगवान् महावीर ने सामयिक धर्मों में ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, पाषण्डधर्म, कुलधर्म, गणधर्म और संघधर्म को गिनाया है क्योंकि सामाजिक, राजनैतिक, अथवा सांघिक व्यवस्थाएँ स्थायी नहीं होतीं । द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव के अनुसार धर्म की अशाश्वत धारा को भी भगवान् महावीर ने शाश्वत धर्म के साथ समन्वति किया । और साथ में प्रत्येक धर्म साधक को एक कुन्जी पकड़ा दी कि 'अपनी प्रज्ञा ( सद्-असद्विवेकशालिनी बुद्धि) से तत्वरूप से निश्चित धर्मतत्व की समीक्षा करो।' अर्थात्हर समय तुम्हारे साथ देव और गुरु धर्म के मार्गदर्शन के लिए नहीं रहेंगे, तुम्हें धर्मतत्व के यथार्थ दर्शन के लिए अपने सद्विवेक पर निर्भर रहना पड़ेगा । जैनतत्व कलिका की रचना
पूर्वोक्त तीन तत्वों को लेकर जैनतत्व कलिका नामक प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना स्व० महामहिम जैनधर्म दिवाकर आगमरत्नाकर आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व सन् १६३२ में की थी । इसका पूर्व नाम 'जैनतत्व कलिका विकास' है, किन्तु सरल भाव-बोध की दृष्टि से अब 'जैनतत्त्व कलिका' इतना नाम रखा गया है । तत्व का विकास तो इसमें है ही । आपने स्वयं इस ग्रन्थ के लिखने का उद्देश्य बताया था कि 'मेरे अन्तःकरण में चिरकाल से यह चिन्तन चल रहा था कि आगम आदि ग्रन्थ समुद्र हैं, उनमें डुबकी लगाकर तत्वों का खोज पाना सर्वसाधारण के लिए दुरूह है. फिर आगम प्राकृत भाषा में है, संस्कृतभाषा में उनकी टीकाएँ हैं, जिनका आशय प्रत्येक व्यक्ति के लिए समझना सुगम नहीं है । अतः हिन्दी भाषा में ऐसा एक ग्रन्थ लिखा जाय । जो साम्प्रदायिक विरोध से सर्वथा मुक्त हो, और जिससे जैन दृष्टि से देव, गुरु और धर्मादि तत्वों का आसानी से भलीभाँति बोध हो जाए ।" साथ ही जिनोक्त इन तत्वों के स्वरूप को शास्त्रों के उद्धरणों के साथ प्रमाणित करने का प्रयत्न किया गया है, जिससे पाठक जैनतत्व ज्ञान का इस एक ही ग्रन्थ से भलीभाँति अध्ययन कर सके । वास्तव में स्व. आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ के नाम के अनुरूप जैन ( जिनोल) तत्वों का विकास कलिका के रूप में क्रमशः प्रस्तुत किया है ।
जैन तत्व कलिका का प्रतिपाद्य विषय
प्रस्तुत ग्रन्थ में देव, गुरु और धर्म, इन तीन मुख्य तत्त्वों की मीमांसा की गई है । प्रथम कलिका में देवतत्त्व के सर्वांगीण स्वरूप आदि का प्रतिपादन किया गया है । द्वितीय कलिका में गुरुतत्त्व के स्वरूप का, गुरुतत्त्व में परिगणित आचार्य, उपाध्याय और साधु के गुणों और आदर्शों का दिग्दर्शन कराया गया है । इसके पश्चात् तृतीय कलिका में धर्मतत्त्व का स्वरूप तथा स्थानांग सूत्र में वर्णित धर्म के १० प्रकारों का उल्लेख करके उनमें से धर्मतत्त्वों का विवेचन प्रस्तुत
'पन्ना समिक्ख धम्मतत्तं तत्तविणिच्छियं ।'
- उत्तराध्ययन. २३।२५
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