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गुरु-स्वरूप
द्वितीय- कलिका
जैनधर्म के तीन आराध्य तत्त्वों में देवतत्त्व के बाद दूसरा आराध्य गुरुतत्त्व है । हमारा आदर्श पूर्वोक्त देवत्व प्रकट करना है । इस देवत्व ( अर्हत् पद) को प्राप्त करने की साधना में जो सुयोग्यरूप से प्रयत्नशील है, वह त्यागी, संयमी, अपरिग्रही सन्त गुरु है । आचार्यदेव का सर्वांगीण स्वरूप
गुरु की महिमा
भारतीय संस्कृति में गुरु की बहुत महिमा है । अरिहन्त या तीर्थंकर अथवा देव के बाद अगर कोई पूजनीय होता है तो गुरु ही होता है । अरिहन्त या तीर्थंकर प्रत्येक काल में विद्यमान ( प्रत्यक्ष ) नहीं होते। उनकी अनुपस्थिति में उनका प्रतिनिधित्व करने वाला गुरु ही होता है । देव की पहिचान करने वाला गुरु है । सामान्य मानव देव को पहिचान नहीं सकता । देव के अत्यन्त सन्निकट अथवा हृदय से अत्यन्त सान्निध्य में गुरु है ।
आध्यात्मिकता के जीते-जागते प्रतीक गुरुदेव की महिमा के सम्बन्ध में कहना ही क्या ? भारतीय धर्म ग्रन्थों के पृष्ठ पर पृष्ठ गुरु गुणगान के सम्बन्ध में भरे पड़े हैं। गुरु के सम्बन्ध में एक श्लोक प्रसिद्ध है—
अज्ञानतिमिरान्धस्य
ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
अर्थात् - अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे बने हुए मनुष्य के नेत्र ज्ञानरूपी अञ्जन शलाका से जो खोल देते हैं, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है ।
अन्धकार में भटकते हुए, ठोकरें खाते हुए मनुष्य के लिए दीपक का जितना महत्त्व है, उतना ही, बल्कि उससे भी बढ़कर महत्त्व है - अज्ञानअन्धकार में भटकते हुए जिज्ञासु मानव के लिए गुरुदेव का । जिज्ञासु और विनयशील मानव को गुरु आदर्श या ध्येय की पहचान कराता है । वीतरागता क्या है ? और इस स्थिति पर पहुँचने के लिए क्या विधेय या आचरणीय है, इसे वह भलीभाँति समझाता और बताता है ।